Friday, November 1, 2019

न्यायिक पुनरावलोकन : अर्थ एवं प्रकृति, संयुक्त राज्य अमेरिका मे न्यायिक पुनरावलोकन


* न्यायिक पुनरावलोकन - अर्थ एवं प्रकृति :-

                                                                                                         न्यायिक पुनरावलोकन का तात्पर्य न्यायालयों उस शक्ति से है जिसके अंतर्गत व्यवस्थापिका के उन कानूनों को असंवैधानिक या  अमान्य घोषित कर सकते हैं  जो उनके मतानुसार सविधान के प्रतिकूल हो | न्यायालय इसके अंतर्गत कार्यपालिका के उन आदेशों को भी अवैध  करार दे सकते हैं जो कि उन कानूनों के आधार पर उसके द्वारा बनाए गए हो और इस प्रकार संविधान के प्रतिकूल हो न्यायिक पुनरावलोकन शक्ति के आधीन न्यायपालिका संविधान की व्याख्या करती है और कानूनों तथा प्रशासनिक आज्ञाओ की वैधानिकता निर्णय करती है |


न्यायिक पुनरावलोकन : अर्थ एवं प्रकृति, संयुक्त राज्य अमेरिका मे न्यायिक पुनरावलोकन

*  परिभाषा :-

                                  न्यायिक पुनरावलोकन की राजनीति शास्त्रियों ने विविध परिभाषाएं की है |

मेक्रेडिस एवं ब्राउन :-

                                                 मेक्रेडिस एवं ब्राउन के शब्दो मे पुनरावलोकन का संक्षेप मे  आशय न्यायाधीशों की उस शक्ति से है  जिसके अधीन वे उच्चतर कानून के नाम पर संविधियो तथा आदेशों की व्याख्या कर सके और संविधान में  विरुद्ध पाने पर उन्हें अमान्य ठहरा सकें |

* ऐतिहासिक सिंहावलोकन :-

                                                                   कानून की व्याख्या करने वाली एक स्वतंत्र न्यायपालिका के विचार का उद्गम हम इंग्लैंड में पाते हैं कोक तथा 17 वी शताब्दी के अन्य विचारों ने जो कानून की सर्वोच्चता के समर्थक थे न्यायालयों के इस अधिकार का समर्थन किया था कि वह ( common law ) के अनुसार संसदीय अधिनियम की व्याख्या कर सकते हैं कोक का राजा जेम्स के साथ संघर्ष को कि के इसी विषय पर आधारित था कि इंग्लैंड के न्यायालयों को वे निर्णय देने का अधिकार है कि संसद का कोई कानून वैधानिक है अथवा नहीं
किंतु 17 वी सदी के पश्चात इंग्लैंड में कानून निर्मात्री संस्था के रूप में संसद की पूर्ण सर्वोच्चता के विचार को अपनाया गया और इसी कारण न्यायिक पुनरावलोकन का विचार इंग्लैंड में स्थापित नहीं हो सका कालानर  में इंग्लैंड में से संवैधानिक चरित्र तथा परंपराओं ने इतनी गहराई से जड़े जमा ली कि उन्हें न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति का अभाव भी महसूस नहीं हुआ इसके विपरीत अमेरिकी संघ का निर्माण विभिन्न राज्यों से मिलकर हुआ था और संघ की स्थापना के बाद भी संघ और राज्यों के बीच तथा परस्पर राज्यों के बीच विवाद उत्पन्न होने की आकांक्षाएं थी |

* संयुक्त राज्य अमेरिका में न्यायिक पुनरावलोकन :- ( judicial review in u. S. A.  ) :-

                                                                      न्यायिक पुनरावलोकन की स्थिति का सर्वोत्तम उदाहरण संयुक्त राज्य अमेरिका में देखने को मिला है अमेरिका में न्यायलय के अत्यधिक प्रभाव एवं कांग्रेस तथा राज्यों की विधायकों के कानूनों तथा अन्य प्रशासनिक आज्ञाओ की वैधानिकता  अवैधानिकता का निर्णय करती है वहां पर सर्वोच्च न्यायालय ही नहीं अन्य उच्च न्यायालय को भी इस पर्सन पर निर्णय देने का अधिकार है ईरानी का कोई कानून संविधान के अनुकूल है या नहीं लेकिन संघीय संविधान के विरुद्ध होने के सब अभीयोगों का अंतिम निर्णय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा किया जाता है |

( 1 ) न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति का संवैधानिक आधार:-

                                                                                                               इस बात पर बहुत अधिक विवाद है कि अमेरिका में सर्वोच्च न्यायालय की न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति का कोई संवैधानिक आधार है अथवा नहीं एक पक्ष का विचार है कि इसकी कोई वैधानिक आधार नहीं है और सर्वोच्च न्यायालय ने मनमाने तरीके से यह सभी अपने हाथ में ले ली है संविधान सभा के एक प्रमुख सदस्य और बाद में राष्ट्रीय पति जेफरसन मैं तो स्पष्ट का था |

( 2 ) न्यायिक पुनरावलोकन की आलोचना:-

                                                                      सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय राजनीति से प्रेरित हैं यह तो माना जा सकता है कि सर्वोच्च न्यायालय की वैधानिकता के आधार पर कानूनों पर विचार करने का अधिकार प्राप्त होना चाहिए किंतु  वस्तु स्थिति यह है कि सर्वोच्च न्यायालय के न्यायधीश वैधानिक निर्णय देते हुए उन्हें अपने राजनैतिक विचारधारा से रंग देते हैं इस संबंध में कहा जाता है कि केवल काला लबादा और लेने में ही कोई व्यक्ति राजनीति से मुक्त नहीं हो जाता है न्यायाधीशों के निर्णय आर्थिक और राजनैतिक विचारधारा पर आधारित होते हैं इसका परिणाम यह है कि न्यायिक नैनों में परिवर्तन होते हैं |

 इस आधार पर भी आलोचना की जाती है कि सर्वोच्च न्यायालय ने इस शक्ति के प्रयोग में सामान्यता प्रतिक्रियावादी और रूढ़िवादी का का ही परिचय दिया है  सर्वोच्च न्यायालय आयकर व्यवस्था न्यूनतम वेतन उद्योगों में काम करने वाले मजदूरों के काम के घंटे निश्चित करने में दास प्रथा को समाप्त करने से संबंधित प्रगतिशील विधायकों को रद्द कर  प्रगतिशीलता मैं बाधक बना है|

( 3 ) न्यायिक पुनरावलोकन का अमेरिकी संविधान ने व्यवस्था पर प्रभाव और महत्व:-
                                              सिद्धांत में न्यायिक पुनरावलोकन के संवैधानिक आधार से चुनौती दी गई है और उसकी अन्य आलोचनाएं भी की गई है किंतु व्यवहार में 1801 ई से लेकर आज तक न्यायिक पुनरावलोकन प्रचलित राहे तथा इसने अमेरिकी संविधान एक व्यवस्था के 1 मूल आधार की स्थिति प्राप्त कर ली है अमेरिकी संविधान व्यवस्था में न्यायिक पुनरावलोकन का विशिष्ट महत्व है
 सर्वप्रथम अमेरिकी संविधान निर्माताओं द्वारा जिस सीमित शासन की कल्पना की गई थी उसे न्यायिक पुनरावलोकन के आधार पर ही प्राप्त किया जा सका है |

Thursday, October 31, 2019

जॉन लॉक का जीवन परिचय एवं राजनीतिक चिंतन


* जॉन लॉक का जीवन परिचय :-

                                                                           जॉन लॉक का जन्म 29 अगस्त 1632 को वेरिग्टन सोमरसेटशायर मैं हुआ उसका परिवार गृह युद्ध में संसदीय समर्थक लोगों के साथ रहा | लॉक को उसके परिवार के प्रभाव के कारण वेस्टमिन्जर स्कूल में प्रवेश मिल गया इस समय इस स्कूल का प्रधान रिचर्ड बुस्वी था जो की राजतंत्र समर्थक था अत : लॉक कोई अपने परिवार से  पूर्णतः भिन्न पृष्ठभूमि एवं प्रभाव देखने को मिला किंतु रिचर्ड बुस्वी निरंतर मुझे देखने की अपेक्षा की कि उसके विद्यार्थी किस विचारधारा या किस मान्यता को मानने वाले हैं लॉक जीवन प्रियतम चलने वाली चिकित्सा तथा विज्ञान की रुचि एवं अनुभावात्मकता की प्रवृति इसी काल में विकसित हुई है |

जॉन लॉक  का जीवन परिचय एवं राजनीतिक चिंतन

* जॉन लॉक की प्रमुख रचनाएं:-

                                                                          एसेज कंसर्निग ह्यूमन अंडरस्टेडिंग, लेटर्स कंसर्निग टॉलरेशन, थॉट कंसर्निग एजुकेशन एसेज ऑर दि. लॉ अफ नेचर, |

* जॉन लॉक की पुस्तकों में सबसे महत्वपूर्ण पुस्तक:-

                                                                                                             ``   टू  टीटाइसेज ऑन सिविल गवर्नमेंट ´´

*जॉन लॉक  का राजनीतिक चिंतन :-

( 1 ) मानव प्रकृति एवं प्राकृतिक अवस्था:- 

                                                                                                 लॉक ने अपने राजनीतिक चिंतन का प्रारंभ होम्स की भांति प्राकृतिक अवस्था से ही प्रारंभ किया है लॉक  का मानना है कि प्राकृतिक अवस्था की दो महत्वपूर्ण विशेषताएं हैं प्रथम यह पूर्ण स्वतत्रता की अवस्था है  इस अवस्था में व्यक्ति प्राकृतिक कानून की सीमाओं के अंदर जो चाहा कर सकता है लॉक के शब्दों में प्राकृतिक कानून की सीमाओं में रहते हुए किसी दूसरे मनुष्य की इच्छा या अनुमति से स्वंतत्र अपना कार्य करने की अपनी संपत्ति और व्यक्तित्व की अपनी इच्छा अनुसार व्यवस्था करने की पूर्ण स्वतंत्रता की अवस्था हो मनुष्य की स्वाभाविक अवस्था है लॉक मैं ऐसा नहीं है लोकी प्राकृतिक अवस्था ने तो आदर्शवादी है और ने ही युद्ध की अवस्था लोकी प्राकृतिक अवस्था की उल्लेखनीय विशेषता प्राकृतिक कानून का होना है जो उसे व्यवस्थाआत्मक  रूप प्रदान करते हैं 

( 2 ) समाज एवं सरकार की स्थापना :-

                                                                                      लॉक की प्राकृतिक अवस्था में असुविधाएं तो थी किंतु वे असहनीय नहीं थी लॉक की प्राकृतिक अवस्था तथा होम्स की प्रकृति अवस्था के सिद्धांत में हम यह यंत्र पाते हैं इस अंतर को स्वयं लॉक ने प्रकट करते हुए लिखा है प्राकृतिक अवस्था तथा युद्ध की अवस्था में यह स्पष्ट विभिनता है जिसे कुछ विचारकों ने स्वीकार नहीं किया है इन दोनों अवस्थाओं में उतनी ही विभिनता है ताकि नागरिक सम्मान का गठन किया जा सके तथा ऐसी संस्था को जन्म दिया जा सके जो इस अवस्था की कमियों को सुधारने में समर्थ हो इस उद्देश्य से ही व्यक्ति समझौता करते हैं इस समझौते के माध्यम से स्वतंत्र एवं सम्मान व्यक्ति अपने प्राकृतिक स्वतंत्रता का इसलिए परित्याग कर देते हैं ताकि प्राकृतिक कानून की सही व्याख्या हो सके समर्थ न्यायधीश हो तथा उन्हें लागू किया जा सके 


( 3 ) सरकार के प्रकार :-

                                                        लॉक सरकार के प्रकारों का विवेचन करते हुए कहता है कि चुंकि प्रकृति अवस्था में कोई व्यवस्थित एवं सर्वमान्य कानून नहीं थे अत : एक कानून निर्मात्री इकाई होना आवश्यक है यह व्यवस्थापिका होगी यह प्रत्येक राज्य मे सर्वोच्च होती है लॉक के शब्दों में व्यवस्थापिका सत्ता वह सत्ता है जिसे राज्य की शक्ति का निर्देशन करने का अधिकार होता है कि किसी प्रकार व्यक्ति समाज और उसके सदस्यों की सुरक्षा के लिए लिए प्रयोग में लाई जाए साथ ही सरकार का स्वरूप इस बात पर निर्भर करता है की व्यवस्थापिका सत्ता का किस प्रकार से संचालन किया जाए लॉक ने लिखा है की सरकार का सबसे अच्छा रूप है जिसमें व्यवस्थापिका सत्ता ऐसे भिन्न-भिन्न व्यक्तियों को सौंपी जाए जो विधि पूर्वक सभा में एकत्रित हो 

( 4 ) क्रांति का अधिकार तथा  संप्रभुता की अवधारणा:-

                                                                                                                         न्याय की अवधारणा में क्रांति की मान्यता स्वत : अंतनिर्हित होती है अगर सरकार न्याय के प्रावधानों का उल्लंघन करती है तथा सत्ता का निजी हितपूर्ति मैं प्रयोग होता है तो जनता को यह अधिकार है कि वे सरकार को हटा दें इस उद्देश्य के लिए यदि आवश्यक हो तो वे शक्ति का प्रयोग भी कर सकते हैं यद्यपि लॉक ने उस अवस्था का उल्लेख नहीं किया है जिसमें शक्ति की अनुमति हो 

( 5 ) प्राकृतिक अधिकारी की अवधरणा :-

                                                                                                 लॉक के अनुसार प्राकृतिक अवस्था में व्यक्ति के पास कुछ अधिकार थे  जिन्हे उच्च प्रकृति अधिकारों की संज्ञा दी है एक नागरिक समाज की रचना की तथा उसके पास सरकार की स्थापना की लॉक के लेखन में प्राकृतिक अधिकारों का जो विवेचन मिलता है उसके अनुसार अधिकार सरकार से पहले तथा सरकार का अस्तित्व उसको संरक्षण प्रदान करता है अधिकार प्राकृतिक अवस्था में पूर्णतया थे सरकार एवं कानून उनमें अतिरिक्त कुछ भी नहीं जोड़ते सरकार द्वारा बनाए गए कानून उस समय तक मान्य रहते हैं जब तक कि वे  प्राकृतिक कानूनों के अनुरूप हो  राजनैतिक अवस्था में प्राकृतिक अधिकार कानूनी अधिकारों का रूप ले लेते हैं तथा सरकार ने लागू करने को बाध्य होती है लॉक के अनुसार प्रत्येक अच्छी सरकार ऐसा करती है जबकि वहीं सरकार की अपेक्षा अपने स्वयं  के कानून भी लागू करती है
                   

वातावरण का अर्थ व परिभाषा एवं वातावरण के प्रकार

* वातावरण का अर्थ एवं परिभाषा ( Meaning and Definition of Environment ) :-
                                                                                                                            ' वातावरण ' के लिए इसका पर्यायवाची शब्द ' पर्यावरण ' का भी प्रयोग किया जाता है ।

             पर्यावरण दो शब्दों से मिलकर बना है ' परि ' तथा ' आवरण ' । ' परि - का अर्थ है - ' चारों ओर ' तथा ' आवरण ' का अर्थ है - ' ढकने वाला ' या ' घेरने वाला ' । इस प्रकार पर्यावरण या वातावरण वह है जो व्यक्ति को चेतन या अचेतन रूप में चारों ओर से घेरे हुए हैं ।

             अनुकूल वातावरण में व्यक्ति का स्वाभाविक विकास होता है और प्रतिकूल वातावरण में उसका विकास कुण्ठित होता है । वातावरण के तत्वों के अंतर्गत वे सभी भौतिक ( Physical ) और मनोवैज्ञानिक ( Psychological ) उद्दीपक  आते हे जिनमें प्राणी गर्भाध जान से लेकर जीवन पर्यन्त प्रभावित होता रहता है |

 • रॉस -
              “ वातावरण कोई बाहरी शक्ति है जो हमें प्रभावित करती है । "


• वुडवर्थ -
                 " वातावरण में वे सब बाहय तत्व आ जाते है , जिन्होंने व्यक्ति को जीवन आ करने के समय से प्रभावित किया हैं "
" Environment covers with all the outside factors that have acted on the individual since la began life . "
                                       

 • बोरिंग , लैंगफील्ड व वेल्ड -
                                             " व्यक्ति का वातावरण उन सभी उद्दीपकों का योग है जिनको वह गर्भाधान से लेकर मृत्यु तक ग्रहण करता है |

 वातावरण का अर्थ व परिभाषा एवं वातावरण के प्रकार


* वातावरण के प्रकार ( Types of Environment ) :-

                              1 . आंतरिक वातावरण ( Internal Environment ):-
                                  आंतरिक वातावरण का तात्पर्य गर्भावस्था की उन परिस्थितियों से है जो भूण को चारों ओर से घेरे रहती है ।

2 . बाह्य वातावरण ( External Environment ):-
                                                                          बाह्य वातावरण के अंतर्गत वे सभी परिस्थितियां आती हैं जो सामूहिक या मिश्रित रूप से उसके विकास और व्यवहार को प्रभावित करती रहती है । बाहय वातावरण को दो भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है -

                                           ( अ ) भौतिक वातावरण ( Physical Environment ) इसे प्राकृतिक वातावरण भी कहते हैं । इसके अंतर्गत पृथ्वी , चन्द्र , सूर्य , नदियां , पहाड़ , समुद्र , रेड - पौधे , जीव - जन्तु आदि सभी प्रकृति प्रदत्त वस्तुएं आती हैं जो किसी न किसी प्रकार व्यक्ति को आजन्म प्रभावित करती रहती हैं ।

                             ( ब ) सामाजिक वातावरण ( Social Environment ) :-
                                सामाजिक वातावरण का तात्पर्य उन सभी परिस्थितियों से है जो बालक के शारीरिक , मानसिक और सामाजिक विकास पर प्रभाव डालती है । मानव समाज में प्रचलित सभी सामाजिक परिस्थितियों , रीति - रिवाज , प्रथाएँ , रूढ़ियां , रहन - सहन आदि सामाजिक वातावरण के अंतर्गत आते हैं ।


* वंशानुक्रम और वातावरण का सापेक्ष महत्व :-
                                                               1. वंशानुक्रम और वातावरण को एक - दूसरे से पृथक नहीं किया जा सकता ।
2 . वंशानुक्रम और वातावरण , एक - दूसरे के पूरक , सहायक और सहयोगी हैं ।

3 . वंशानुक्रम और वातावरण के प्रभावों में अंतर करना संभव नहीं हैं ।

4 . व्यक्ति का विकास , वंशानुक्रम एवं वातावरण की अन्तः क्रिया के फलस्वरूप होता है और व्यक्ति इन दोनों का योगफल न होकर गुणनफल है ।

व्यक्ति ( Individual ) =
                                  H ( वंशानुक्रम ) XE ( वातावरण )
               अंत में हम कह सकते हैं कि बालक के विकास के लिए वंशानुक्रम और वातावरण , दोनों कारकों का ही समान रूप से महत्व है । वंशानुक्रम और वातावरण में से , यदि कोई भी कारक शून्य हो जाता है तो व्यक्ति का विकास भी शून्य हो जायेगा ।
जैसा कि सूत्र से स्पष्ट है -
                      वंशानुक्रम x वातावरण = व्यक्ति का विकास अतः ox वातावरण = 0 या वंशानुक्रम xo = 0
                 ( चूंकि गणित में , ox 2 = 0 या 2 x 0 = 0 ) |

होम्स के राज्य की उत्पत्ति का सिद्धांत संविदा का स्वरूप एवं व्यक्तिगत व निरंकुशतावाद का जनक


* होब्स की प्राकृतिक अवस्था :-

                                                                       हॉब्स ने प्राकृतिक अवस्था को बड़ी दयनीय बताइए उसके अनुसार प्राकृतिक अवस्था में मनुष्य लगातार संघर्ष करता रहता है वास्तव में होम्स के राजनीतिक दर्शन की एक प्रमुख विशेषता यह है कि इसमें मानव स्वभाव या प्रकृति के विश्लेषण को केंद्र बिंदु बनाया गया है  होम्स के अनुसार मनुष्य स्वभाव से स्वार्थी व आत्म केंद्रित प्राणि है  वह हमेशा सुख पाने की इच्छा करता है दुखदाई परिस्थितियों से वह हमेशा दूर रहने का प्रयास करता है इस सुख की प्राप्ति के लिए वे दूसरों पर अधिकार जमाना चाहता है उसे इस बात का अनुभव होता है कि शक्ति द्वारा ही सुख प्राप्त किया जा सकता है लेकिन मैं दूसरों पर अपना अधिकार नहीं जमा सकता क्योंकि होम्स के अनुसार प्राकृतिक अवस्था में सभी मनुष्य शारीरिक व मानसिक शक्ति में करीब-करीब बराबर होते हैं अभिप्राय यह है कि सब मिलाकर व्यक्तियों में एक प्राकृतिक समानता है अर्थात ने कोई किसी से कम है और ने किसी से अधिक सुख प्राप्ति के मार्ग में सबसे बड़ी अड़चन यह है की स्वयं  उसी के सम्मान सभी व्यक्ति सुख की खोज में व्यस्त हैं लोग एक दूसरे से डरते हैं फिर भी एक दूसरे से लड़ते हैं संघर्ष की प्रवृति असुरक्षा की भावना उत्पन्न करती है |
 
होम्स के राज्य की उत्पत्ति का सिद्धांत संविदा का स्वरूप एवं व्यक्तिगत व निरंकुशतावाद का जनक

* हॉब्स के राज्य की उत्पत्ति का सिद्धांत या संविदा का स्वरूप :-

                                                                                                                                                 हॉब्स के अनुसार मनुष्य के लिए विवेकजन्य नियमों का आचरण करना बहुत कठिन होता है क्योंकि मनुष्य के भाव आवेशों को नियंत्रित नहीं किया जा सकता इस विषय में प्रो. जोन्स का कहना है कि होम्स द्वारा दिए गए तर्क के स्तरों को प्रदर्शित करता है पहला यह है कि मनुष्य प्राकृतिक स्वभाव उग्र व अदूरदर्शी होता है जिसके फलस्वरूप उसे इच्छा से इन नियमों का आचरण करवाने के लिए एक सर्वशक्तिमान संप्रभु की आवश्यकता होती है मॉम्स का अनुमान है कि यदि विवेक को सहायता देने के लिए सख्ती भी साथ में हो तो काम चल सकता है ऐसी शक्ति सामाजिक संविदा द्वारा उत्पन्न की जा सकती है होम्स केवल शक्ति को ही इसका आधार नहीं मानते हैं बल्कि वे इस सत्य को भी बताना चाहते हैं कि इसका आधार बहुत कुछ जनता की इच्छा पर भी निर्भर है यदि सभी मनुष्य विवेक पूर्ण आचरण करें तथा इन नियमों का अनुपालन करें और अपनी सुरक्षा व शांति के लिए सामाजिक संविदा द्वारा अपने प्राकृतिक शक्तियों को एक सामान्य व्यक्ति या व्यक्ति समूह को सौंपने के लिए तैयार हो तो समस्या का समाधान हो सकता है इस संविदा को लागू किया जा सकता है होम्स का विचार एक ही स्थान विधा प्राकृतिक अवस्था को पार करने वाले मनुष्य के बीच होती है यह संविदा जनता वे शासन के बीच नहीं है बल्कि इस लोगों ने स्वयं आपस में शासक नियुक्त करने के लिए बनाया है होम्स के अनुसार इस  मैं व्यवस्था के अंतर्गत हर व्यक्ति अपने प्राकृतिक शक्ति का परित्याग करते हुए दूसरे से यह कहता है मैं अपने ऊपर अपने शासन के अधिकार को इस व्यक्ति अथवा व्यक्तियों के समुदाय को इस शर्त पर देता हूं कि आप सब भी अपने अधिकारों को उसे सौंप दें और जिस प्रकार में इससे प्राधिकार को दे रहा हूं उसी प्रकार आप सब भी उस सभी कार्यों के लिए प्राधिकार दे दें |

* संप्रभुता:-

                             होम्स सामाजिक संविदा में ही प्रकृतिक  अवस्था में रहने वाले मनुष्यों की समस्याओं का हल पाते हैं इस संविदा के बनने से जो राज्य बनता है उसमें एक संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न सत्ता निहित  होती है जो कि एक सम्मान सम्मति के रूप में समाज पर शासन करती है हॉब्स के अनुसार शक्ति के अभाव में संविदा मात्र शब्दों के रूप में ही विद्यमान रहती है इस प्रकार संविधान में एक सम्मति  ही सभी लोगों की व्यक्तिगत सम्मतियों का स्थान लेकर उनका प्रतिनिधित्व करती है इस प्रकार होम्स के सिद्धांत में अनेक सम्मतियों का स्थान एक सम्मति ले लेती है होम्स के अनुसार बिना एक सम्मति या सपा के राज्य नहीं बन सकता इस प्रकार संप्रभुता का सार पूरे समुदाय की ओर से निर्धारित करने के अधिकार में हीनिहित होता है सत्ता कानूनों के निर्माण तथा पालन करवाने के अधिकार के रूप में प्रकट होती है सत्ताधारी द्वारा बनाए गए कानूनों के अधिकारों को सीमित नहीं किया जा सकता क्योंकि राज्य के बनने से नैतिकता की कोई भावना नहीं होती और संविदा का पालन करना ही न्याय इसलिए नैतिक रूप से राजसत्ता असीमित होती है |



*  हॉब्स : व्यक्तिवाद व निरंकुशतावाद का जनक :-

                                                                                                             टिकाकारों का कहना है कि होम्स व्यक्तिवादी दार्शनिक के रूप में अपने सिद्धांतों का प्रतिपादन करते हैं तथा उनके निष्कर्ष निरंकुशतावाद  की चरम सीमा पर पहुंचते हैं उनके राज्य का सिद्धांत एक असीमित अनियंत्रित सर्वोच्च संप्रभुता को जन्म देता है हॉब्स के अनुसार सभ्य समाज के बनाने से पहले तथा उसके बाद मनुष्य की सुरक्षा व सुख महत्वपूर्ण है होम्स का यह सिद्धांत उपयोगितावाद की उत्पत्ति के लिए एक आधारभूत कदम से  हुआ
 प्राकृतिक नियमों के संबंध में भी होम्स की धारणा भ्रांति पूर्ण लगती है एक और तो होम्स कहते हैं कि प्राकृतिक अवस्था में ने नैतिकता होती है नए कानून प्राकृतिक नियम विवेक पर आधारित होते हैं दूसरी तरफ हॉब्स  मनुष्य द्वारा प्रसंविदा बनाने पर उसका पालन करने को कहते हैं जो कि विवेक पर ने आधारित होकर नैतिकता पर आधारित है होम्स नैतिकता की उपस्थिति को इनकार कर चुके होते हैं पर प्राकृतिक नियम के रूप में नैतिकता को फिर उपस्थित कर देते हैं इसके बिना वे राज्य की कल्पना भी नहीं कर पाते होम्स द्वारा मनुष्य को जीवन संकट के दौरान विद्रोह करने का अधिकार उसकीनिरंकुश संप्रभुता के विचार से मेल नहीं खाता है यदि प्रजा को विद्रोह का अधिकार है तो इस परिस्थिति में निरंकुश संप्रभुता का विफल होना आवश्यक है यदि संप्रभुता असीमित है तो संप्रभु की शक्तियों को किसी भी दशा में सीमित नहीं किया जा सकता दोनों विचार आपस में यह संगत तथा इसलिए एक साथ विद्यमान नहीं रह सकते |

व्यास के वर्णित राजनीतिक विचार एवं महाभारत में गणराज्य संबंधी विचार

* महाभारत में वर्णित  राजनीतिक विचार:-

                                               महाभारत का मुख्य विषय कौरवों और पांडवों का युद्ध है लेकिन इसमें  पुराण,  धर्म, राजनीति,  कूटनीति,  दर्शन, अध्यात्मशस्त्र, मैं अन्य प्राचीन वाग्ड़मय   का भी समावेश हुआ है प्राचीन भारतीय शासन पद्धति और राजनीतिक विचारों के अध्ययन हेतु महाभारत एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है इन्हें हम व्यास के राजनीतिक विचार भी कह सकते हैं कुछ विद्वानों ने भीष्म के मानते हैं |
व्यास के वर्णित राजनीतिक विचार एवं महाभारत में गणराज्य संबंधी विचार

( 1 ) दंड नीति:-

                                       शांति पर्व के राजधर्म अनुशासन पर्व में राजनीतिक चिंतन मिलता है  साथ ही  राज्यशास्त्र के निर्माताओं का  इसे परिचय मिलता है सर्वप्रथम ब्रह्मा जी ने उस समय फैली अराजकता को दूर करने के लिए एक लाख  श्लोको  में विशाल राज शास्त्र की रचना की दंड नीति  के महत्व को बताते हुए व्यास कहते हैं कि यदि दंड नीति का लॉक हो जाए तो वेद तथा अन्य सभी वर्णो एवं आश्रमों के धर्म क्षीण हो जाएंगे व्यास ने समयक  जीवन के निर्वाह के लिए राजधर्म की महत्वपूर्ण भूमिका पर बल दिया है |

( 2 ) राज्य संस्था की  उत्पत्ति:-

                                                                  राज्यसता की उत्पत्ति के संदर्भ में महाभारत में महत्वपूर्ण चिंतन मिलता है महाभारत में राजा से पूर्व की स्थिति की विवेचना की गई है आरंभ में ने राजा था और न राज्य और ना ही कोई दंड देने वाला | 59 वें अध्याय में उल्लेख है कि प्रारंभ में कृतयुग ( पूर्णता की स्थिति ) था न  राज्य था, न  राज्य,  और न  दंड था,  और न दंड देने वाला | क्रमश : लोगों में मोह उत्पन्न हुआ और तब लोभ, कामुक प्रेरणाओ एवं उधम प्रवृतियो उदय हुआ और वेद एवं धर्म का विनाश हो गया |

( 3 ) राज:-

                      महाभारत में राजा को सप्तांग स्वरूप  वाला चित्रित किया गया है राजा, अमात्य,  जनपद, दुर्ग कोश, दंड और मित्र,  राजा के यह सभी अंग एक दूसरे के पूरक है प्राचीन काल में राजतंत्र ही शासन का प्रचलित रूप था महाभारत में भी राजा सभी राजनीतिक कार्य विधियों की केंद्रीय दूरी है महाभारत में भी उल्लेख आया है कि धृतराष्ट्र को अंधे होने के कारण राजा नहीं मिला अच्छे राजा के गुणों को उल्लेख कौटिल्य मन्नू की भांति व्यास ने भी किया है शांति पर्व ( 70 ) मैं राजा के 36 गानों की सूची दी गई है |

 कौटिल्य ने राजा की पांच विशिष्ट  विशेषताएं बताइए:-

                                                                                                            ( 1 ) सत्यवादीता
                                                                                                            ( 2 ) पराक्रम
                                                                                                            ( 3 )  दानशीलता
                                                                                                            ( 4 ) दूसरे की योग्यता को समझने की क्षमता
            

( 4 ) राजा के कर्तव्य:-

                                                    राजा के उद्देश्यों व कर्तव्यों के बारे में महाभारत में सविस्तार उल्लेख है  राजा को प्रजा की सुरक्षा करनी चाहिए और व्यवस्था बनाए रखने चाहिए राजा के अलौकिक महत्व को स्वीकारते हुए व्यास कहते हैं कि कभी भी अराजक राष्ट्र में नहीं बचना चाहिए राजा का प्रमुख कर्तव्य प्रजा पालन एवं प्रजा रंजन माना गया है राजा एवं प्रजा के बीच व्यवहार के संदर्भ में गर्भिणी स्त्री का आदर्श रखता है |

• राजा के प्रमुख कर्तव्य:-

                                                       ( 1 ) प्रजा का रक्षण या पालन
                                                       ( 2 ) वर्णाश्रम - धर्म - नियम का पालन
                                                       ( 3 ) दुष्टों को दंड देना तथा न्याय करना
 प्राचीन भारत में साम्राज्यवादी भावना का प्रचार भी हो गया था चक्रवर्ती सम्राट की अवधारणा  प्रचलित थी महाभारत में पांडव अर्जुन व अन्य पांडवों की दिग्विजय का  विवरण उपलब्ध है प्राचीन शासक छोटे-छोटे राजाओं के राजा पर अधिकार करने में विश्वास नहीं रखते थे वरन वे दूसरों द्वारा अपनी शक्तियां प्रभुत्व अंगीकार कर लेने को अधिक महत्व देते थे |

( 5 ) दंड व न्याय व्यवस्था :-

                                                              प्राचीन काल में दंड वे न्याय का क्षेत्र भी राजा के संबंध था राजा प्रजा पालन के लिए ही राजदंड धारण करता था महाभारत में इसे ही क्षेत्रीय धर्म माना गया था महाभारत मैं दंड नीति शब्द की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि दंड द्वारा ही यह विश्व अच्छे मार्ग पर लाया जाता है और यह शास्त्र दंड देने की व्यवस्था करता है इसलिए इसे दंड नीति की संख्या मिलती है यह तीनों लोकों में छाया हुआ है
 न्याय प्रदान करवाना राजा का परम कर्तव्य था वे अपराधियों के प्रति दंड का प्रयोग करता था व्यास के अनुसार राजा को न्याय की प्रशासन कुल धर्म जाति धर्म में देश धर्म आदि के अनुरूप ही करना चाहिए प्राचीन भारतीय राजशास्त्रियों ने राजा को निर्देश दिए हैं कि दंड का प्रयोग धर्मानुसार ही किया जाना चाहिए |

( 6 ) अंतर राज्य संबंध:-

                                                    अंतर राज्य संबंधों को विकसित करने का दायित्व भी राजा का होता था राजा साम्राज्यवादी भावना से प्रेरित बाजपेय, पुण्डरीक, राजसूय, आदि यज्ञ का संपादन करते थे व्यास के अनुसार शास्त्र शत्रु को कमजोर नहीं समझना चाहिए महाभारत में बलवान शत्रु के प्रति किस प्रकार का व्यवहार किया जाना चाहिए इस पर व्यापक चर्चा हुई शत्रु के बालक किया बुड्ढा होने पर भी उसे कमजोर समझना उचित नहीं है |

( 7 ) आपदधर्म:-

                                           महाभारत में राजा के आपदधर्म की भी पर्याप्त चर्चा हुई है  युधिष्ठिर भीष्म के संवाद मैं इसकी एक झलक मिलती है युधिस्टर ने 20 में से प्रश्न किया कि जिस राजा को मित्रों ने छोड़ दिया वह  जो कोषहीन  तथा बलहीन  जिसकी मंत्राण सब प्रकार से निकली हुई हो |
                                           

Wednesday, October 30, 2019

अभिजन सिद्धांत प्रकृति व स्वरूप, अभिजन सिद्धांत का ऐतिहासिक वैचारिक संदर्भ

* अभिजन सिद्धांत प्रकृति:-

                                                             अभिजन सिद्धांत की  वैचारिक प्रकृति व  वास्तविक स्वरूप की चर्चा से पूर्व उल्लेखनीय है कि द्वितीय महायुद्ध के उपरांत अमेरिका सामाजिक विज्ञान में अनेक सामाजिक वैज्ञानिकों द्वारा अभी जनवादी परिकल्पना ओं का नियोजन किया गया और उसके प्रकाश में सामाजिक प्रक्रिया की व्याख्या की गई इसके बावजूद पश्चिम में फासीवाद और नाजीवाद के उदय से पूर्व विचारकी की पंक्ति विद्यमान रही है

( 1 )  अभिजन अथवा  ऐसा विकसित व अल्पसंख्यक वर्ग जो अपनी प्रकृति धन्य क्षमता वह सामर्थ्य के आधार पर संपूर्ण समाज को अधिकारिक नेतृत्व प्रदान करता है |

( 2 ) जनसाधारण या समाज का ऐसा बहुसंख्यक वर्ग जो अभिजनों द्वारा शासित वह संचालित होता है कोई भी समाज अथवा राजनीति सामान्य तत्व काकाकुआ नहीं हो सकती राजनीतिक प्रक्रिया की वास्तविकता ज्ञात करने के लिए यह आवश्यक है कि अभिजन  जनसाधारण के बीच व्याप्त है इस दौरान दोनों पक्षों में शक्ति संबंध और उनकी प्रभावशीलता एक  केबीय  महत्व का प्रसन्न होती है |

* अभिजन सिद्धांत का स्वरूप:-

                                                                         अभिजन सिद्धांत की प्रकृति व स्वरूप के संबंध में यह स्पष्ट करना प्रसंगिक होगा कि इसका कोई एक सामान्य सामान्य प्रतिमान उपलब्ध नहीं है संभवत यह हो भी नहीं सकता क्योंकि समस्त वैज्ञानिक व व्यवहारवादी कामुसंधान  के बावजूद इस पर का राजनीति का कोई सर्वे छवि का अर्थ रूप उपलब्ध नहीं है उसी प्रकार अभी जनों की स्थितियों के संबंध में भी कोई सर्व सहमति की व्याख्या नहीं की जा सकती |

 तीनों दुनिया उसे संबंधित अभी जनों की प्रकृति कीजिए व्याख्या चीनी आदर्श प्रकारों की पैरवी नहीं करती वहां वास्तव में वहां पर विद्यमान प्रतिनिधि पर भर्तियों का एक फूल चित्र मात्र है
( 1 ) अभिजन सिद्धांत सामाजिक राजनीतिक प्रक्रिया के विश्लेषण की दृष्टि से किसी भी समाज को दो वर्गों में देखता परखता है
   ( a ) अभिजन और|
   ( b ) जनसाधारण

( 2 ) इन प्रकृति जननीय विविधताओं के बावजूद अभिजन सिद्धांत एक अति सामान्य समानता यह प्रकट करता है कि हर देश में समाज में अभिजन,  जन साधारण संबंध राजनीतिक शक्ति पर आधारित हैं |

* अभिजन सिद्धांत का ऐतिहासिक वैचारिक  संदर्भ :-

( 1 ) क्लासिकी सिद्धांत:-

                                                        राजनीतिक चिंतन की क्लासिकी परंपरा का सर्वाधिक उल्लेखनीय योगदान यह था कि उसने एक ऐसी माननीय क्षमताओं को पुष्ट किया जिसके द्वारा व्यक्ति अपने निजी मानसिकता से अपना परिवेश गढ़ सकता था राजा वे था जिसका सर्वव्यापी दृष्टिकोण था जो शासन की साधन परकता को भी जानता था और सामुदायिक साध्य को भी और यह क्षमता उसे उसके विवेक से मिलती थी |

( 2 ) प्लेटो :-

                         प्लेटो के राजनीतिक विचारों का मूल बिंदु ही यह था कि ज्ञान ही गुण है ज्ञान से ही सत्य की प्राप्ति होती है और उसी से वस्तुनिष्ठ यथार्थ का बोध होता है ज्ञानी वह है जो कल्याण अथवा भलाई के स्थूल विचार से ऊपर उठकर उसके अमूर्त सूक्ष्म तत्वों से अंतरंग होते हैं इसी कारण उसने अपने विचार योजना में शासक के लिए ज्ञान में दर्शन के गुणों को अनिवार्य बताया है |

( 3 ) अरस्तु:-

                           अरस्तु ने यद्यपि प्लेटो की विचार योजना में संशोधन किया और वैचारिक अमूर्तता के साथ वास्तविक व्यवहारिकता का अंश राजनैतिक में जोड़ा फिर भी उसका यह सामान्य मत था कि जन्म से ही कुछ लोग अधीनता के लिए नियत होते हैं और कुछ आदेश देने के लिए उसकी विचार योजना में आदेश देने की क्षमता उनमें कुछ लोगों में हनीत होती है जो सद्गुण सम्मान होते हुए बौद्धिक क्रियाओं द्वारा व्यवहारिकता वे नैतिकता में नियमन व संतुलित स्थापित करते हैं |

( 4 ) रोमन काल :-

                                      रोमन काल में प्रकृति कानूनों से मानव कानून बने और आधिकारिक यूरोपीय के रूप में प्लेटो वादी विवेक  वे अरस्तु वादी कानून समस्त सरकार के लक्ष्यों को अंगीकार करते हुए उन्हें धार्मिकता से समनिवत किया गया है जो सामान्य मानवीय इच्छाओं के समर्थक से ऊपर थे |

( 5 ) होम्स, लॉक,  रूसो :-

                                                     होम्स यद्यपि पर्याप्त अंशों में व्यक्तिवादी आग्रहो  से युक्त था और मानवीय आतम अनुसरण के अधिकार का प्रयत्न  समर्थक लेकिन प्राकृतिक  अवस्था से नागरिक समख व अव्यवस्था से व्यवस्था प्राप्त करने की खोज में उसने एक ऐसी सर्वोच्च वे कानून स्वतंत्र सला का विकल्प रखा |

( 6 ) उपयोगितावादी :-

                                               राजनीतिक चिंतन की धात को आगे बढ़ाते हुए उपयोगितावादियो ने उपयोगितावादी उपकरणों के संगठन में अधिकांश की सुख समृद्धि के अधिकाधिक संवधर्न का दायित्व राज्य पर छोड़ा और इससे व्यापक ढांचे में शासकशासितों  के पारंपरिक संबंध संगठित हुए |

Tuesday, October 29, 2019

संसदात्मक तथा अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली का अर्थ एवं विशेषताएं, संसदीय शासन प्रणाली में मंत्रिमंडल के कार्य

* संसदात्मक शासन प्रणाली का अर्थ एवं विशेषताएं :-

                                                                                                                          इस प्रणाली के संबंध में इतना ही कहा जा सकता है कि इसमें सरकार व्यवस्थापिका के प्रति उत्तरदायी होती है इस पद्धति को मंत्रिमंडलीय प्रणाली के नाम से भी पुकारा जाता है क्योंकि इसके अंतर्गत कार्यपालन की शक्ति एक व्यक्ति मेहनत में होकर एक सीमित मेहनत होती है तथा मुख्य कार्यपालक केवल नाम मात्र या ध्वज मात्र शासक होता है जैसा कि इसके नाम से ज्ञात होता है संसदात्मक प्रणाली में संसद की मेहता होती है कार्यपालिका तो इसके सेवक के रूप सम्मान कार्य करती है जिसमें वास्तविक कार्यपालिका प्रत्यक्ष या कानूनी रूप से अपने निर्वाचक को के प्रति और राजनीति नीतियों और कृतियों के लिए उत्तरदायी रहती है |
संसदात्मक तथा  अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली का अर्थ एवं विशेषताएं,  संसदीय शासन प्रणाली में मंत्रिमंडल के कार्य

* विशेषताएं:-

                                   संसदीय शासन पद्धति  के मुख्य विशेषताओं पर विचार करने के पूर्व इस प्रणाली के संबंध में कुछ और बातों को स्पष्ट कर लेना भी उचित होगा
( 1 ) प्रथम इस प्रणाली में दो प्रकार की कार्यपालिका ए होती है जबकि अध्यक्षात्मक प्रणाली में केवल कार्यपालिका होती है संसदात्मक मे (a ) ध्वजमात्र  ( b ) वास्तविक |
( a ) ध्वज मात्र  की कार्यपालिका एक राज्याध्यक्ष होता है जो एक नाम मात्र का शासक होता है जैसे भारत का राष्ट्रपति  और इंग्लैंड की सामाक्षी |
( b ) वास्तविक कार्यपालिका जिसके शासन संबंधी शक्ति होती है उसके प्रत्येक प्रधानमंत्री और उनका मंत्रिमंडल होता है
( c ) द्वितीय इस प्रणाली के अंतर्गत जितना घनिष्ठ संबंध कार्यपालिका व्यवस्थापिका में होता है उतना संभवत अन्य किसी व्यवस्था के अंदर नहीं होता |
( d ) मुख्य विशेषताएं संसदीय प्रणाली के अर्थ और परिभाषा पर एक दृष्टि डाल लेने के पश्चात यह आवश्यक हो जाता है संसदीय प्रणाली की विशेषताएं परिलक्षित होती है
( 1 ) वास्तविक और धवज मात्र कार्यपालिका
( 2 ) कार्यपालिका और व्यवस्थापिका में अभिन्न संबंध |
( 3 ) सामूहिक उत्तरदायित्व |
( 4 ) मंत्रिमंडल की एकता
( 5 ) प्रधानमंत्री का नेतृत्व
( 6 ) व्यक्तिगत उत्तरदायित्व
( 7 ) गोपनीयता
( 8 ) मंत्रियों के लिए संसद की सदस्यता अनिवार्य|

* अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली अर्थ एवं विशेषताएं:-

                                                                                                                     यद्यपि संसदात्मक और  अध्यक्षात्मक शासन पद्धति और दोनों ही ,  प्रजातंत्र के दो रूप हैं तथापि इनके संगठन एवं शासन संचालन में काफी अंतर है इसके अंतर्गत कार्यपालिका ने तो व्यवस्थापिका में से ली जाती है और न ही यह उसके प्रति उत्तरदाई होती है इसके अतिरिक्त मुख्य कार्यपालन संसदीय प्रणाली की भांति केवल ध्वज मात्र का शासक नहीं होता अपितु वे वास्तविक शासक होता है

 * प्रोफ़ेसर गेटिल के अनुसार:-

                                                                        अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली पद्धति मैं कार्यपालिका प्रधान अपने संपूर्ण कार्यकाल में अपनी नीतियों और कार्यों के विषय में विधानमंडल से स्वतंत्र होता है 

* अध्यक्षत्मक शासन प्रणाली की विशेषताएं :-

                                                                                                  ( 1 ) शक्तियों का पृथक्करण 
                                                                                                  ( 2 ) कार्यपालिका का निश्चित कार्यकाल
                                                                                                  ( 3 ) उत्तरदायित्व का अभाव
                                                                                                  ( 4 ) राज्याध्यक्ष, शासन एवं राज्य दोनों का  मुखिया

* संसदीय शासन प्रणाली में मंत्रिमंडल के कार्य:-

                                                                                                            संसदीय शासन पद्धति में मंत्रिमंडल संसद की एक सीमित के रूप में होता है  अत :विधि निर्माण से लेकर न्यायालय संबंधी कार्य तक का भार अपने कंधों पर लिया होता है मंत्रिमंडल युद्ध शांति नीति निर्माण और विदेश नीति का संचालन करने के लिए उत्तरदायी होता है

 कार्य :-

   ( 1 ) नीति निर्माण
   ( 2 ) विदेश नीति पर निर्णय
   ( 3 ) वित्तीय कार्य
   ( 4 ) न्यायिक  कार्य
   ( 5 ) समन्वयकारी कार्य
   ( 6 ) देश एवं विदेश में राष्ट्र का नेतृत्व एवं प्रतिनिधित्व
  ( 7 ) संसद की समिति के रूप में कार्य |