* महाभारत में वर्णित राजनीतिक विचार:-
महाभारत का मुख्य विषय कौरवों और पांडवों का युद्ध है लेकिन इसमें पुराण, धर्म, राजनीति, कूटनीति, दर्शन, अध्यात्मशस्त्र, मैं अन्य प्राचीन वाग्ड़मय का भी समावेश हुआ है प्राचीन भारतीय शासन पद्धति और राजनीतिक विचारों के अध्ययन हेतु महाभारत एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है इन्हें हम व्यास के राजनीतिक विचार भी कह सकते हैं कुछ विद्वानों ने भीष्म के मानते हैं |
( 1 ) दंड नीति:-
शांति पर्व के राजधर्म अनुशासन पर्व में राजनीतिक चिंतन मिलता है साथ ही राज्यशास्त्र के निर्माताओं का इसे परिचय मिलता है सर्वप्रथम ब्रह्मा जी ने उस समय फैली अराजकता को दूर करने के लिए एक लाख श्लोको में विशाल राज शास्त्र की रचना की दंड नीति के महत्व को बताते हुए व्यास कहते हैं कि यदि दंड नीति का लॉक हो जाए तो वेद तथा अन्य सभी वर्णो एवं आश्रमों के धर्म क्षीण हो जाएंगे व्यास ने समयक जीवन के निर्वाह के लिए राजधर्म की महत्वपूर्ण भूमिका पर बल दिया है |
( 2 ) राज्य संस्था की उत्पत्ति:-
राज्यसता की उत्पत्ति के संदर्भ में महाभारत में महत्वपूर्ण चिंतन मिलता है महाभारत में राजा से पूर्व की स्थिति की विवेचना की गई है आरंभ में ने राजा था और न राज्य और ना ही कोई दंड देने वाला | 59 वें अध्याय में उल्लेख है कि प्रारंभ में कृतयुग ( पूर्णता की स्थिति ) था न राज्य था, न राज्य, और न दंड था, और न दंड देने वाला | क्रमश : लोगों में मोह उत्पन्न हुआ और तब लोभ, कामुक प्रेरणाओ एवं उधम प्रवृतियो उदय हुआ और वेद एवं धर्म का विनाश हो गया |
( 3 ) राज:-
महाभारत में राजा को सप्तांग स्वरूप वाला चित्रित किया गया है राजा, अमात्य, जनपद, दुर्ग कोश, दंड और मित्र, राजा के यह सभी अंग एक दूसरे के पूरक है प्राचीन काल में राजतंत्र ही शासन का प्रचलित रूप था महाभारत में भी राजा सभी राजनीतिक कार्य विधियों की केंद्रीय दूरी है महाभारत में भी उल्लेख आया है कि धृतराष्ट्र को अंधे होने के कारण राजा नहीं मिला अच्छे राजा के गुणों को उल्लेख कौटिल्य मन्नू की भांति व्यास ने भी किया है शांति पर्व ( 70 ) मैं राजा के 36 गानों की सूची दी गई है |
कौटिल्य ने राजा की पांच विशिष्ट विशेषताएं बताइए:-
( 1 ) सत्यवादीता
( 2 ) पराक्रम
( 3 ) दानशीलता
( 4 ) दूसरे की योग्यता को समझने की क्षमता
( 4 ) राजा के कर्तव्य:-
राजा के उद्देश्यों व कर्तव्यों के बारे में महाभारत में सविस्तार उल्लेख है राजा को प्रजा की सुरक्षा करनी चाहिए और व्यवस्था बनाए रखने चाहिए राजा के अलौकिक महत्व को स्वीकारते हुए व्यास कहते हैं कि कभी भी अराजक राष्ट्र में नहीं बचना चाहिए राजा का प्रमुख कर्तव्य प्रजा पालन एवं प्रजा रंजन माना गया है राजा एवं प्रजा के बीच व्यवहार के संदर्भ में गर्भिणी स्त्री का आदर्श रखता है |
• राजा के प्रमुख कर्तव्य:-
( 1 ) प्रजा का रक्षण या पालन
( 2 ) वर्णाश्रम - धर्म - नियम का पालन
( 3 ) दुष्टों को दंड देना तथा न्याय करना
प्राचीन भारत में साम्राज्यवादी भावना का प्रचार भी हो गया था चक्रवर्ती सम्राट की अवधारणा प्रचलित थी महाभारत में पांडव अर्जुन व अन्य पांडवों की दिग्विजय का विवरण उपलब्ध है प्राचीन शासक छोटे-छोटे राजाओं के राजा पर अधिकार करने में विश्वास नहीं रखते थे वरन वे दूसरों द्वारा अपनी शक्तियां प्रभुत्व अंगीकार कर लेने को अधिक महत्व देते थे |
( 5 ) दंड व न्याय व्यवस्था :-
प्राचीन काल में दंड वे न्याय का क्षेत्र भी राजा के संबंध था राजा प्रजा पालन के लिए ही राजदंड धारण करता था महाभारत में इसे ही क्षेत्रीय धर्म माना गया था महाभारत मैं दंड नीति शब्द की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि दंड द्वारा ही यह विश्व अच्छे मार्ग पर लाया जाता है और यह शास्त्र दंड देने की व्यवस्था करता है इसलिए इसे दंड नीति की संख्या मिलती है यह तीनों लोकों में छाया हुआ है
न्याय प्रदान करवाना राजा का परम कर्तव्य था वे अपराधियों के प्रति दंड का प्रयोग करता था व्यास के अनुसार राजा को न्याय की प्रशासन कुल धर्म जाति धर्म में देश धर्म आदि के अनुरूप ही करना चाहिए प्राचीन भारतीय राजशास्त्रियों ने राजा को निर्देश दिए हैं कि दंड का प्रयोग धर्मानुसार ही किया जाना चाहिए |
( 6 ) अंतर राज्य संबंध:-
अंतर राज्य संबंधों को विकसित करने का दायित्व भी राजा का होता था राजा साम्राज्यवादी भावना से प्रेरित बाजपेय, पुण्डरीक, राजसूय, आदि यज्ञ का संपादन करते थे व्यास के अनुसार शास्त्र शत्रु को कमजोर नहीं समझना चाहिए महाभारत में बलवान शत्रु के प्रति किस प्रकार का व्यवहार किया जाना चाहिए इस पर व्यापक चर्चा हुई शत्रु के बालक किया बुड्ढा होने पर भी उसे कमजोर समझना उचित नहीं है |
( 7 ) आपदधर्म:-
महाभारत में राजा के आपदधर्म की भी पर्याप्त चर्चा हुई है युधिष्ठिर भीष्म के संवाद मैं इसकी एक झलक मिलती है युधिस्टर ने 20 में से प्रश्न किया कि जिस राजा को मित्रों ने छोड़ दिया वह जो कोषहीन तथा बलहीन जिसकी मंत्राण सब प्रकार से निकली हुई हो |
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