* मध्यकालीन राजनीतिक विचारों का मूल स्वरूप एवं प्रकृति:-
मध्यकालीन राजनीतिक विचारों के स्वरूप एवं प्रकृति की चर्चा से पूर्व स्वयं भारतीय मध्य काल के स्वरूप और प्रकृति का संक्षिप्त उल्लेख है | भारतीय मध्य काल की अवधि पाश्चात्य मध्यकाल की अपेक्षा कहीं अधिक लंबी रही है | भारतीय मध्य काल का प्रारंभ प्राय : गुप्त साम्राज्य के पतन से शुरू होता है | ( सम्राट की मृत्यु के उपरांत तो निश्चित ही और वे प्लासी के युद्ध की समाप्ति तक ( 1748 तक ) व्याप्त रहा है | इस दृष्टि से जहाँ पश्चिम में 1453 मैं रोमन साम्राज्य के पतन के बाद ही आधुनिक युग का सूत्रपात होने लगा था वही भारत में उसके 300 वर्षों के अंतराल तक मध्यकाल परिवर्तित रहा ) |
* मध्यकालीन राजनीतिक विचारों के वी. पी. वर्मा के अनुसार पांच प्रमुख विचार केंद्र रे हैं |
(1) वीरगाथा काल के लेखकों के कृतित्व मैं प्रकट सामन्ती - राजतंत्रात्मक विचार
(2) भक्ति सम्प्रदाय के कृतिकारों की कृतियों मे प्रकट धार्मिक परंपरावाद
(3) तुर्की - अफगान तथा मुगल काल में अभिव्यक्त इस्लामी धर्म तांत्रिक अवधारणाएं
(4) नानक तथा कबीर की वाणी में अभिव्यक्ति समन्वयात्मक समाजशास्त्र जिसने इस्लाम में हिंदू धर्म के बीच पारंपरिक समन्वय को प्रोत्साहित किया |
बरनी इस्लाम से स्वतंत्रता किसी भी किसी भी तर्क के बाद के विरुद्ध था | स्वतंत्रता तार्किकता का तो वे बिल्कुल पक्षधर नहीं था | जहां तक कि उसने शिक्षा में विज्ञान के शिक्षण तक का विरोध किया था
न्याय के प्रति उसका आग्रह भी धर्म में अनुप्राणित था कामत था कि न्याय धर्म की एक आवश्यक शर्त है तथा स्वयं धर्म न्याय की एक बुनियादी जरूरत है |
बरनी ने संप्रभु के लिए तीन कार्य प्रतिपादित किए |
(1 ) शरियत का प्रवर्त्तन
(2 ) अनैतिक तथा पाप युक्त आचरण एवं क्रियाओं पर रोक |
(3 ) न्याय का परिचालन और इसके लिए विविध नियुक्तियों का प्रबंध |
कीमतों पर नियंत्रण बरनी का एक अन्य उल्लेखनीय योगदान था | उसने यह पुरजोर वकालत की कि यदि दुकानदार अपने श्रम से अधिक दाम और खरीदार को अपने गाढ़े पसीने की कमाई इस तरीके से गवानी पड़े तो यह एक बिल्कुल नाजायज बात होगी अगर कीमतों की अंधाधुंध रफ्तार गिरफ्तार ने किया जाए तो समाज में बदइंतजामी फैलेगी |
* डॉ ताराचंद की मान्यता :-
डॉ ताराचंद ने इस विकास को कोई अलगाव सनक नहीं माना | उनकी यह मान्यता थी कि हिंदू _मुस्लिम एकीकरण की सूफ़ी और भक्ति कालीन परंपराओं से उपजी शक्तियों के सचेत क्रियाकलापों से इस समन्वय को बल मिला |
अबुल फजल की आईने अकबरी इस काल का एक उल्लेखनीय ग्रंथ है राज शीला की दृष्टि से आईने अकबरी तथा कौटिल्य के अर्थशास्त्र में समानता ही विद्यमान थी दोनों ही ग्रंथ राजकाज में राजा की व्यक्तिगत रुचि पर बल देते थे | उसने विद्वानों को ने देखकर शासकों और योद्धाओं को दिया क्योंकि उससे व्यवस्था का सूत्रपात और संचालन होता था दूसरे स्थान पर इसमें विद्यमान सम्मिलित है तीसरा व्यापारियों का और चौथा मजदूरों /कामगारों का था |
मुगल कालीन भारत में राज्य तथा धार्मिक प्रतिष्ठान प्राय अलग थे सरकारी पदों पर केवल मुस्लिम वर्ग का ही एकाधिकार नहीं था हिंदू काफ़ी संस्थापक प्रबंध नियत नहीं थे वे केवल शासकों की इच्छा और प्रसाद के अधीन थे
* सामाजिक प्रभाव :-
मध्यकालीन भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में समाज और संस्कृति के प्रसंगों को शासकों ने प्राय : शासकीय हस्तक्षेप की परिधि के परे रखा इस अ - हस्तक्षेप का उद्देश्य उदारवाद के प्रवर्तन नहीं था क्योंकि मात्रा भेद के बावजूद मुगल शासक मोलते पर बल इस्लामी अनुयायी और वे हिंदुओं के धर्म जीवन और सस्तुति के या तो विरोधी थे या उनके प्रति उदासीन शासन प्रबंध उनका अभीष्ट था इस मेलजोल के वातावरण से राजनैतिक औचित्य का कोई परवाह नहीं प्रकट होना वास्तविकता तो यह है की स्थाई आधार पर हिंदुस्तान में आकर बसने के कर्म में दो महान सभ्यताओं और संस्कृतियों का जनजीवन पर तथा जन चेतना पर प्रभाव पड़ा जो कि एक स्वाभाविक सामाजिक सांस्कृतिक प्रक्रिया है |
इस इस प्रभाव के फल स्वरुप राजनीति के अतिरिक्त जीवन के अन्य सभी प्रशन को स्थापत्य मूर्तिकला चित्रकला संगीत साहित्य आदि पर हिंदू-मुस्लिम समन्वय की छाप दिखाई दी भक्ति काल और सूफी परंपरा इसी समन्वयात्मक लोक चेतना के उदाहरण है मुगल साम्राज्य के शुद्धीकरण के परिणाम स्वरूप भारतीय समाज का जो संगठन प्रस्तुत हुआ उसमें राजा सर्वोच्च स्थान पर रहा था| उसके बाद दरबारी वर्ग एक लघु और मध्यम वर्ग तथा पदसोपान के निचले सिरे पर कृषक वर्ग विद्यमान था |
एक बार जब राजा शासन काला और सद्गुणों दोनों से दूर हो गए और उनकी तथा दरबारी वर्ग की जीवन व्रतियों नितांत विलासी हो गई तो उसके विलास को बरकरार रखने के लिए सरचना के निम्नतम घटक को लगातार उत्पीड़ित किया जाने लगा उससे यह अपेक्षा की गई कि वह केवल अपने श्रम से संरचना के उत्तर लोगों की विलासी जीवन शैली को सुलभ करें उसका मोल चुकाय |
धार्मिक के धरातल पर अनिवार्यत :रूप इस्लाम का अत्यधिक स्तरित हिंदू समाज इस रचना से मिलाप पर हुआ इसने कालांतर में काफी मशीन नीले पाली थी जिसके फलस्वरूप यह मिलन विकृत सा हो चला | सब तो यह भी है कि इस मिलन के फल स्वरुप अक्सर दोनों विश्वासों वे धर्म प्रतियों में आतम शुद्धि कारक संकल्प पैदा हुआ ओए दूसरे के प्रति कदरवादी का भाव परिपुष्ट हुआ
* अंग्रेजी संपर्क का प्रभाव :-
अंग्रेजी व्यवस्था के शुद्धीकरण से यातायात के साधन बड़े जिसे स्वयं भारतीय भी एक दूसरे से जुड़े हैं अंग्रेजी शिक्षा के प्रभाव में जहां भारतीयता की जड़ें कमजोर की, वही उसने भारतीयों के मानसिक क्षितिज का भी विस्तार किया यूरोपीय सभ्यता पुनर्जागरण कला संस्कृति साहित्य आदि के ज्ञान ने भारतीयों को ज्ञानोदय का अवसर सुलभ कराया भारतीय पुनर्जागरण के यह सब धर्म एवं समाज सुधारो से संबंधित विविध आंदोलनों में परिलक्षित होते हैं राजा राममोहन राय तथा ब्रह्मसमाज दयानंद सरस्वती तथा आर्य समाज रानाडे तथा प्रार्थना समाज एनी बेसेंट तथा थियोसोफिकल सोसाइटी आंदोलन आप भी इसी सामाजिक संदर्भ के सटीक उदाहरण है
इस प्रकार आधुनिक सामाजिक राजनीतिक विचारों का विकास क्रम जहां एक और भारतीयता से अलगाव की विवशता दर्शाता है
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस राष्ट्रीय चेतना के वाहक संस्था के रूप में स्थापित की गई जिसने उदारवादी कार्यक्रमों को संस्थात्मक आधार उपलब्ध कराया |
दार्शनिक, सांस्कृतिक, सामाजिक राजनीतिक, तथा रचनात्मक कार्यक्रमों, के विविध स्तरों पर महात्मा गांधी ने राष्ट्रीय आंदोलन को एक संग्रह दृष्टि तथा व्यापक जनाधार प्रदान किया |
मध्यकालीन राजनीतिक विचारों के स्वरूप एवं प्रकृति की चर्चा से पूर्व स्वयं भारतीय मध्य काल के स्वरूप और प्रकृति का संक्षिप्त उल्लेख है | भारतीय मध्य काल की अवधि पाश्चात्य मध्यकाल की अपेक्षा कहीं अधिक लंबी रही है | भारतीय मध्य काल का प्रारंभ प्राय : गुप्त साम्राज्य के पतन से शुरू होता है | ( सम्राट की मृत्यु के उपरांत तो निश्चित ही और वे प्लासी के युद्ध की समाप्ति तक ( 1748 तक ) व्याप्त रहा है | इस दृष्टि से जहाँ पश्चिम में 1453 मैं रोमन साम्राज्य के पतन के बाद ही आधुनिक युग का सूत्रपात होने लगा था वही भारत में उसके 300 वर्षों के अंतराल तक मध्यकाल परिवर्तित रहा ) |
* मध्यकालीन राजनीतिक विचारों के वी. पी. वर्मा के अनुसार पांच प्रमुख विचार केंद्र रे हैं |
(1) वीरगाथा काल के लेखकों के कृतित्व मैं प्रकट सामन्ती - राजतंत्रात्मक विचार
(2) भक्ति सम्प्रदाय के कृतिकारों की कृतियों मे प्रकट धार्मिक परंपरावाद
(3) तुर्की - अफगान तथा मुगल काल में अभिव्यक्त इस्लामी धर्म तांत्रिक अवधारणाएं
(4) नानक तथा कबीर की वाणी में अभिव्यक्ति समन्वयात्मक समाजशास्त्र जिसने इस्लाम में हिंदू धर्म के बीच पारंपरिक समन्वय को प्रोत्साहित किया |
बरनी इस्लाम से स्वतंत्रता किसी भी किसी भी तर्क के बाद के विरुद्ध था | स्वतंत्रता तार्किकता का तो वे बिल्कुल पक्षधर नहीं था | जहां तक कि उसने शिक्षा में विज्ञान के शिक्षण तक का विरोध किया था
न्याय के प्रति उसका आग्रह भी धर्म में अनुप्राणित था कामत था कि न्याय धर्म की एक आवश्यक शर्त है तथा स्वयं धर्म न्याय की एक बुनियादी जरूरत है |
बरनी ने संप्रभु के लिए तीन कार्य प्रतिपादित किए |
(1 ) शरियत का प्रवर्त्तन
(2 ) अनैतिक तथा पाप युक्त आचरण एवं क्रियाओं पर रोक |
(3 ) न्याय का परिचालन और इसके लिए विविध नियुक्तियों का प्रबंध |
कीमतों पर नियंत्रण बरनी का एक अन्य उल्लेखनीय योगदान था | उसने यह पुरजोर वकालत की कि यदि दुकानदार अपने श्रम से अधिक दाम और खरीदार को अपने गाढ़े पसीने की कमाई इस तरीके से गवानी पड़े तो यह एक बिल्कुल नाजायज बात होगी अगर कीमतों की अंधाधुंध रफ्तार गिरफ्तार ने किया जाए तो समाज में बदइंतजामी फैलेगी |
* डॉ ताराचंद की मान्यता :-
डॉ ताराचंद ने इस विकास को कोई अलगाव सनक नहीं माना | उनकी यह मान्यता थी कि हिंदू _मुस्लिम एकीकरण की सूफ़ी और भक्ति कालीन परंपराओं से उपजी शक्तियों के सचेत क्रियाकलापों से इस समन्वय को बल मिला |
अबुल फजल की आईने अकबरी इस काल का एक उल्लेखनीय ग्रंथ है राज शीला की दृष्टि से आईने अकबरी तथा कौटिल्य के अर्थशास्त्र में समानता ही विद्यमान थी दोनों ही ग्रंथ राजकाज में राजा की व्यक्तिगत रुचि पर बल देते थे | उसने विद्वानों को ने देखकर शासकों और योद्धाओं को दिया क्योंकि उससे व्यवस्था का सूत्रपात और संचालन होता था दूसरे स्थान पर इसमें विद्यमान सम्मिलित है तीसरा व्यापारियों का और चौथा मजदूरों /कामगारों का था |
मुगल कालीन भारत में राज्य तथा धार्मिक प्रतिष्ठान प्राय अलग थे सरकारी पदों पर केवल मुस्लिम वर्ग का ही एकाधिकार नहीं था हिंदू काफ़ी संस्थापक प्रबंध नियत नहीं थे वे केवल शासकों की इच्छा और प्रसाद के अधीन थे
* सामाजिक प्रभाव :-
मध्यकालीन भारतीय राजनीतिक व्यवस्था में समाज और संस्कृति के प्रसंगों को शासकों ने प्राय : शासकीय हस्तक्षेप की परिधि के परे रखा इस अ - हस्तक्षेप का उद्देश्य उदारवाद के प्रवर्तन नहीं था क्योंकि मात्रा भेद के बावजूद मुगल शासक मोलते पर बल इस्लामी अनुयायी और वे हिंदुओं के धर्म जीवन और सस्तुति के या तो विरोधी थे या उनके प्रति उदासीन शासन प्रबंध उनका अभीष्ट था इस मेलजोल के वातावरण से राजनैतिक औचित्य का कोई परवाह नहीं प्रकट होना वास्तविकता तो यह है की स्थाई आधार पर हिंदुस्तान में आकर बसने के कर्म में दो महान सभ्यताओं और संस्कृतियों का जनजीवन पर तथा जन चेतना पर प्रभाव पड़ा जो कि एक स्वाभाविक सामाजिक सांस्कृतिक प्रक्रिया है |
इस इस प्रभाव के फल स्वरुप राजनीति के अतिरिक्त जीवन के अन्य सभी प्रशन को स्थापत्य मूर्तिकला चित्रकला संगीत साहित्य आदि पर हिंदू-मुस्लिम समन्वय की छाप दिखाई दी भक्ति काल और सूफी परंपरा इसी समन्वयात्मक लोक चेतना के उदाहरण है मुगल साम्राज्य के शुद्धीकरण के परिणाम स्वरूप भारतीय समाज का जो संगठन प्रस्तुत हुआ उसमें राजा सर्वोच्च स्थान पर रहा था| उसके बाद दरबारी वर्ग एक लघु और मध्यम वर्ग तथा पदसोपान के निचले सिरे पर कृषक वर्ग विद्यमान था |
एक बार जब राजा शासन काला और सद्गुणों दोनों से दूर हो गए और उनकी तथा दरबारी वर्ग की जीवन व्रतियों नितांत विलासी हो गई तो उसके विलास को बरकरार रखने के लिए सरचना के निम्नतम घटक को लगातार उत्पीड़ित किया जाने लगा उससे यह अपेक्षा की गई कि वह केवल अपने श्रम से संरचना के उत्तर लोगों की विलासी जीवन शैली को सुलभ करें उसका मोल चुकाय |
धार्मिक के धरातल पर अनिवार्यत :रूप इस्लाम का अत्यधिक स्तरित हिंदू समाज इस रचना से मिलाप पर हुआ इसने कालांतर में काफी मशीन नीले पाली थी जिसके फलस्वरूप यह मिलन विकृत सा हो चला | सब तो यह भी है कि इस मिलन के फल स्वरुप अक्सर दोनों विश्वासों वे धर्म प्रतियों में आतम शुद्धि कारक संकल्प पैदा हुआ ओए दूसरे के प्रति कदरवादी का भाव परिपुष्ट हुआ
* अंग्रेजी संपर्क का प्रभाव :-
अंग्रेजी व्यवस्था के शुद्धीकरण से यातायात के साधन बड़े जिसे स्वयं भारतीय भी एक दूसरे से जुड़े हैं अंग्रेजी शिक्षा के प्रभाव में जहां भारतीयता की जड़ें कमजोर की, वही उसने भारतीयों के मानसिक क्षितिज का भी विस्तार किया यूरोपीय सभ्यता पुनर्जागरण कला संस्कृति साहित्य आदि के ज्ञान ने भारतीयों को ज्ञानोदय का अवसर सुलभ कराया भारतीय पुनर्जागरण के यह सब धर्म एवं समाज सुधारो से संबंधित विविध आंदोलनों में परिलक्षित होते हैं राजा राममोहन राय तथा ब्रह्मसमाज दयानंद सरस्वती तथा आर्य समाज रानाडे तथा प्रार्थना समाज एनी बेसेंट तथा थियोसोफिकल सोसाइटी आंदोलन आप भी इसी सामाजिक संदर्भ के सटीक उदाहरण है
इस प्रकार आधुनिक सामाजिक राजनीतिक विचारों का विकास क्रम जहां एक और भारतीयता से अलगाव की विवशता दर्शाता है
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस राष्ट्रीय चेतना के वाहक संस्था के रूप में स्थापित की गई जिसने उदारवादी कार्यक्रमों को संस्थात्मक आधार उपलब्ध कराया |
दार्शनिक, सांस्कृतिक, सामाजिक राजनीतिक, तथा रचनात्मक कार्यक्रमों, के विविध स्तरों पर महात्मा गांधी ने राष्ट्रीय आंदोलन को एक संग्रह दृष्टि तथा व्यापक जनाधार प्रदान किया |
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