* जीवन परिचय और ब्रहम समाज :-
राजा राममोहन राय आधुनिक भारत के पहले महान समाज सुधारक थे । उन्होंने ब्रह्म समाज की स्थापना की । उनका जन्म 22 मई 1772 को बंगाल के बदवान जिले के राधानगर नामक स्थान में एक कुलीन ब्राह्मण परिवार में हुआ । उनके पिता रामाकांत राय तथा माता तारिणी देवी वैष्णव - सम्प्रदाय के अनुयायी थे । वे बारह वर्ष की अवस्था में विदयाध्ययन के लिए पटना गए l जहां उन्होंने 16 वर्ष की अवस्था में अरबी और फारसी का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया | 16 वर्ष की इसी अल्प आयु में उन्होने बंगाली भाषा में मूर्ति पूजा के विरूद्धलेख लिखे । इससे उनके और उनके पिता के बीच मनोमालिन्य उत्पन्न हो गया और उन्हें घर सहना पड़ा और फिर काशी में सस्कृत तथा वेद , शास्त्र , पुराण , स्मृति उपनिषद आदि हिंदू धर्म ग्रंथों का 12 वर्ष तक गहन अध्ययन किया ।
21 वर्ष की आयु में उन्होंने ईस्ट इंडिया कम्पनी में नौकरी कर ली और पदोन्नति करके रंगपुर ( Rungpore )के दीवान बन गये । इस काल में वे ईसाई धर्मप्रचारको ( मिशनरीज ) के निकट सम्पर्क में आये । इस प्रकार जिन प्रभावों ने राजा राममोहन राय के चिन्तन को दिशा दी वे थे - प्रारम्भिक जीवन के पुरातनवादी - हिन्दू रीति रिवाज , हिन्दू धर्मरान्यों का अध्ययन , इस्लाम और ईसाई धर्मा के धार्मिक साहित्य का अध्ययन तथा ईसाई मिशनरीयों का सम्पर्क । चार वर्ष तक उन्होंने सारे देश की यात्रा करके धर्मशास्त्रों का अध्ययन किया और अपने मस्तिष्क में उठने वाले प्रश्नों के उत्तर ढूंढने का प्रयास किया । वे तिब्बत बौद्ध धर्म का अध्ययन करने गये परन्तु दलाई लामा की संस्था का समर्थन नहीं कर सके और उन्हें वहां से भागना पड़ा । इन प्रभावो ने उनमें एक अन्तराष्ट्रीय दृष्टिकोण ( Cosmonolitan Outlook ) का विकास किया । उनका यह विश्वास हो गया कि हिन्दू धर्म केवल तभी ईसाई मिशनरियों तथा नास्तिको की आलोचनाओं का सामना कर सकता है , जब वह सुधारों को अपनाये । उन्होंने हिन्दू धर्म को उसकी प्राचीन शुद्धता की और ले जाने का निश्चय किया ।
1814 में उन्होंने कम्पनी की नौकरी से त्यागपत्र दे दिया । वे कलकत्ता में बस गये और उन्होने अपने आस - पास ऐसे मित्रों का एक वर्ग तैयार कर लिया जो हिन्दू समाज का सुधार करने के लिये उत्सुक थे । धीरे - धीरे विकसित होकर इसने 1825 में ब्रह्मसमाज का नाम ले लिया ।
राजा और उनका समाज : -
राजा राममोहन राय अपने देशवासियों की अटूट कृतजता के अधिकारी है क्योंकि उन्होंने अपने देश की स्मरणीय सेवा की है । सन् 1933 में उनकी मृत्यु ( 1833 ई0 ) शतर्वाषिकी समपूर्ण भारत में मनाई गई थी । उनतीसवीं शती के प्रारम्भिक चरण में हिन्दू समाज सांस्कृतिक दिराममिता से पीड़ित था । भारतवासी अपने चारों ओर सामाजिक , धार्मिक और बौद्धिक अराजकता से उद्विग्न होकर अपने आप से पूछ रहे थे |
* ब्रह्मसमाज के सिद्धान्त :-
ब्रह्मसमाज ऐसे लोगों का संगठन था जो एक ईश्वर के उपासक थे और मूर्ति पूजा में विश्वास नहीं करते थे । राजा राममोहन राय का हेतुवाद और अखिल विश्ववाद तथा उनके बहु देवतावाद और मूर्ति पूजा विरोधी विचार इसमें अभिव्यक्त हुए हैं । समाज के लिये एक भवन बनवाया गया और उसे ट्रस्टियों की सभा को सौप दिया गया ।
राजा ने 8 जनवरी 1630 को एक ट्रस्ट का दस्तावेज लिखवाया जिसमें यह निर्देश दिया गया कि " यह भवन बिना किसी भेदभाव के सब प्रकार के लोगों की सार्वजनिक सभा के स्थान के रूप में शाश्वत अगम और । अचल प्राणि जो इस विश्वका सृजक और रक्षक है , की पूजा के लिये प्रयुक्त होगा । ” परन्तु इसमें किसी मूर्ति को प्रवेश नहीं दिया जायेगा । उसमें किसी बलिदान की अनुमति नहीं दी । जायेगी तथा किसी पशु या जीवित प्राणि हरण नहीं किया जायेगा ।
* बह्मसमाज के मुख्य सिद्धान्त निम्नलिखित थे -
1 . ईश्वर एक है । उसकी शक्ति , विवेक , प्रेम , न्याय और पवित्रता अपरिमित है ।
2 जीवात्मा अमर है ।
3 . मनुष्य को अपने कम का फल अवश्य भोगना पड़ता है ।
4 . ईश्वर को अपने कर्म का फल अवश्य भोगना पड़ता है ।
5 . प्रत्येक व्यक्ति , चाहे उसकी कोई भी जाति या वर्ग क्यों न हो ईश्वर की पूजा कर सकता है । ईश्वर की पूजा के लिये मन्दिर मस्जिद या किसी अन्य आडम्बर की आवश्यकता नहीं है ।
6 मूर्ति पूजा गलत है । किसी भी बनायी हुई वस्तु जैसे मूर्ति आदि को ईश्वर मानकर नहीं पूजना चाहिये ।
7 . किसी पुस्तक या पुरुष को देवी मानने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि कोई पुस्तक या पुरुष त्रुटिरहित नहीं है ।
8 . मानसिक ज्योति तथा विशाल प्रकृति परमात्मा के ज्ञान का साधन है
9. सभी धर्मो तथा उपदेशों की अच्छी शिक्षाओं को ग्रहण करना चाहिये ।
ब्रह्मसमाज का ट्रस्ट दस्तावेज हिन्दू धर्म के पुनर्जागरण के आन्दोलन के प्रारम्भ का संकेत था । कुछ लोगो का विचार था कि वह हिन्दू धर्म की ईसाई शाखा या ईसाई धर्म की हिन्दू शखा था ।
* हिंदुत्व के पुनर्जागरण के अग्रदूत :-
राजा राममोहन राय ने हिंदुत्व में पुनर्जागरण की भरने की श्री गणेश किया | उनके इस महान कार्य की सुविधा के लिए 6 भागों में विभाजित किया जा सकता है
1. राजा राममोहन राय के सामाजिक सुधार
2. उनका धर्म के तत्कालीन रूप पर आक्रमण
3. ब्रह्म समाज
4. उनकी धर्म की अवधारणा
5. उनके शिक्षा के क्षेत्र में कार्य
6. उनके राजनीतिक क्षेत्र में कार्य |
राजा राममोहन राय आधुनिक भारत के पहले महान समाज सुधारक थे । उन्होंने ब्रह्म समाज की स्थापना की । उनका जन्म 22 मई 1772 को बंगाल के बदवान जिले के राधानगर नामक स्थान में एक कुलीन ब्राह्मण परिवार में हुआ । उनके पिता रामाकांत राय तथा माता तारिणी देवी वैष्णव - सम्प्रदाय के अनुयायी थे । वे बारह वर्ष की अवस्था में विदयाध्ययन के लिए पटना गए l जहां उन्होंने 16 वर्ष की अवस्था में अरबी और फारसी का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया | 16 वर्ष की इसी अल्प आयु में उन्होने बंगाली भाषा में मूर्ति पूजा के विरूद्धलेख लिखे । इससे उनके और उनके पिता के बीच मनोमालिन्य उत्पन्न हो गया और उन्हें घर सहना पड़ा और फिर काशी में सस्कृत तथा वेद , शास्त्र , पुराण , स्मृति उपनिषद आदि हिंदू धर्म ग्रंथों का 12 वर्ष तक गहन अध्ययन किया ।
21 वर्ष की आयु में उन्होंने ईस्ट इंडिया कम्पनी में नौकरी कर ली और पदोन्नति करके रंगपुर ( Rungpore )के दीवान बन गये । इस काल में वे ईसाई धर्मप्रचारको ( मिशनरीज ) के निकट सम्पर्क में आये । इस प्रकार जिन प्रभावों ने राजा राममोहन राय के चिन्तन को दिशा दी वे थे - प्रारम्भिक जीवन के पुरातनवादी - हिन्दू रीति रिवाज , हिन्दू धर्मरान्यों का अध्ययन , इस्लाम और ईसाई धर्मा के धार्मिक साहित्य का अध्ययन तथा ईसाई मिशनरीयों का सम्पर्क । चार वर्ष तक उन्होंने सारे देश की यात्रा करके धर्मशास्त्रों का अध्ययन किया और अपने मस्तिष्क में उठने वाले प्रश्नों के उत्तर ढूंढने का प्रयास किया । वे तिब्बत बौद्ध धर्म का अध्ययन करने गये परन्तु दलाई लामा की संस्था का समर्थन नहीं कर सके और उन्हें वहां से भागना पड़ा । इन प्रभावो ने उनमें एक अन्तराष्ट्रीय दृष्टिकोण ( Cosmonolitan Outlook ) का विकास किया । उनका यह विश्वास हो गया कि हिन्दू धर्म केवल तभी ईसाई मिशनरियों तथा नास्तिको की आलोचनाओं का सामना कर सकता है , जब वह सुधारों को अपनाये । उन्होंने हिन्दू धर्म को उसकी प्राचीन शुद्धता की और ले जाने का निश्चय किया ।
1814 में उन्होंने कम्पनी की नौकरी से त्यागपत्र दे दिया । वे कलकत्ता में बस गये और उन्होने अपने आस - पास ऐसे मित्रों का एक वर्ग तैयार कर लिया जो हिन्दू समाज का सुधार करने के लिये उत्सुक थे । धीरे - धीरे विकसित होकर इसने 1825 में ब्रह्मसमाज का नाम ले लिया ।
राजा और उनका समाज : -
राजा राममोहन राय अपने देशवासियों की अटूट कृतजता के अधिकारी है क्योंकि उन्होंने अपने देश की स्मरणीय सेवा की है । सन् 1933 में उनकी मृत्यु ( 1833 ई0 ) शतर्वाषिकी समपूर्ण भारत में मनाई गई थी । उनतीसवीं शती के प्रारम्भिक चरण में हिन्दू समाज सांस्कृतिक दिराममिता से पीड़ित था । भारतवासी अपने चारों ओर सामाजिक , धार्मिक और बौद्धिक अराजकता से उद्विग्न होकर अपने आप से पूछ रहे थे |
* ब्रह्मसमाज के सिद्धान्त :-
ब्रह्मसमाज ऐसे लोगों का संगठन था जो एक ईश्वर के उपासक थे और मूर्ति पूजा में विश्वास नहीं करते थे । राजा राममोहन राय का हेतुवाद और अखिल विश्ववाद तथा उनके बहु देवतावाद और मूर्ति पूजा विरोधी विचार इसमें अभिव्यक्त हुए हैं । समाज के लिये एक भवन बनवाया गया और उसे ट्रस्टियों की सभा को सौप दिया गया ।
राजा ने 8 जनवरी 1630 को एक ट्रस्ट का दस्तावेज लिखवाया जिसमें यह निर्देश दिया गया कि " यह भवन बिना किसी भेदभाव के सब प्रकार के लोगों की सार्वजनिक सभा के स्थान के रूप में शाश्वत अगम और । अचल प्राणि जो इस विश्वका सृजक और रक्षक है , की पूजा के लिये प्रयुक्त होगा । ” परन्तु इसमें किसी मूर्ति को प्रवेश नहीं दिया जायेगा । उसमें किसी बलिदान की अनुमति नहीं दी । जायेगी तथा किसी पशु या जीवित प्राणि हरण नहीं किया जायेगा ।
* बह्मसमाज के मुख्य सिद्धान्त निम्नलिखित थे -
1 . ईश्वर एक है । उसकी शक्ति , विवेक , प्रेम , न्याय और पवित्रता अपरिमित है ।
2 जीवात्मा अमर है ।
3 . मनुष्य को अपने कम का फल अवश्य भोगना पड़ता है ।
4 . ईश्वर को अपने कर्म का फल अवश्य भोगना पड़ता है ।
5 . प्रत्येक व्यक्ति , चाहे उसकी कोई भी जाति या वर्ग क्यों न हो ईश्वर की पूजा कर सकता है । ईश्वर की पूजा के लिये मन्दिर मस्जिद या किसी अन्य आडम्बर की आवश्यकता नहीं है ।
6 मूर्ति पूजा गलत है । किसी भी बनायी हुई वस्तु जैसे मूर्ति आदि को ईश्वर मानकर नहीं पूजना चाहिये ।
7 . किसी पुस्तक या पुरुष को देवी मानने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि कोई पुस्तक या पुरुष त्रुटिरहित नहीं है ।
8 . मानसिक ज्योति तथा विशाल प्रकृति परमात्मा के ज्ञान का साधन है
9. सभी धर्मो तथा उपदेशों की अच्छी शिक्षाओं को ग्रहण करना चाहिये ।
ब्रह्मसमाज का ट्रस्ट दस्तावेज हिन्दू धर्म के पुनर्जागरण के आन्दोलन के प्रारम्भ का संकेत था । कुछ लोगो का विचार था कि वह हिन्दू धर्म की ईसाई शाखा या ईसाई धर्म की हिन्दू शखा था ।
* हिंदुत्व के पुनर्जागरण के अग्रदूत :-
राजा राममोहन राय ने हिंदुत्व में पुनर्जागरण की भरने की श्री गणेश किया | उनके इस महान कार्य की सुविधा के लिए 6 भागों में विभाजित किया जा सकता है
1. राजा राममोहन राय के सामाजिक सुधार
2. उनका धर्म के तत्कालीन रूप पर आक्रमण
3. ब्रह्म समाज
4. उनकी धर्म की अवधारणा
5. उनके शिक्षा के क्षेत्र में कार्य
6. उनके राजनीतिक क्षेत्र में कार्य |
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