Saturday, October 12, 2019

अंतर्राष्ट्रीय राजनीति-अर्थ, परिभाषा, प्रकृति एवं उसका क्षेत्र

अंतर्राष्ट्रीय राजनीति :अर्थ, परिभाषा, प्रकृति एवं स्वतंत्र विषय -अनुशासन के रूप में विकास 

* अंतर्राष्ट्रीय राजनीति :-  

                                           1. अंतर्राष्ट्रीय राजनीति वह प्रक्रिया है जिसके अंतर्गत राष्ट्र अपने राष्ट्रीय हित संसाधित  करने की चेष्टा करते है | यह हित अपनी नीतियों एवं व्यवहार -क्रम में अन्य राष्ट्रों के राष्ट्रीय हितों से भिन्न, अलग अथवा एक दूसरे के विरोधी हो सकते है (महेंद्र कुमार )
                                   
 2. अंतर्राष्ट्रीय राजनीति शक्ति संबंधो के बदलते प्रतिमानों के अंतर्गत राज्य नीतियों की अन्तः क्रिया का दूसरा नाम हैं (पेडेलफोर्ड एवं लिंकन )
                                     
3. अंतर्राष्ट्रीय राजनीति को एक ऐसा विषय अनुशासन कहते हैं, जो राज्य की सीमाओं के आर-पार की राजनीतिक गतिविधियों की व्याख्या करने की कोशिश करता हैं (ट्रेवर टेलर )
                                       
4. अंतर्राष्ट्रीय राजनीति अध्ययन के एक क्षेत्र के रूप में यह उन प्रक्रियाओं पर केंद्रित हैं जिनसे राज्य अन्य राज्यों के सापेक्ष अपने राष्ट्रहित गढ़ते हैं (हार्टमैन )

अंतर्राष्ट्रीय राजनीति-अर्थ, परिभाषा, प्रकृति एवं उसका क्षेत्र

* अंतर्राष्ट्रीय राजनीति की परिभाषा :-

                                                             अंतर्राष्ट्रीय राजनीति की परिभाषाओं का मूल स्वर, जटिल, कठिन एवं बहुआयामी अन्तः-क्रियाओं, परस्पर संबंधो, शक्ति -संघर्ष एवं राज्य की वाहय नीतियों से संबंध हैं अंतर्राष्ट्रीय राजनीति  निश्चित ही राज्यों के परस्पर संबंधो में परिलछित होती हैं |परस्पर संबंधो की जटिलताओं से  प्रेरित परिभाषाएं भी खासी महत्त्वपूर्ण हैं | प्रख्यात यथार्थवादी अंतर्राष्ट्रीय राजनीति चिंतक हंस मोर्गेंथाउ ने इसी कारण इसे राष्ट्रों के मध्य संबंधो एवं उनके शांति की समस्याओं के विश्लेषण के रूप में देखा हैं शक्ति-संघर्ष को मोर्गेथाउ, अंतर्राष्ट्रीय राजनीति की सबसे महत्त्वपूर्ण तत्व समझते हैं |इस प्रकार हम देखते हैं कि अंतर्राष्ट्रीय राजनीति को भले ही विभिन्न विद्वानों ने कई रीति से पुकारा हो अथवा कई आधारों से परिभाषित किया हो, इस विषय-अनुशासन में राष्ट्र-राज्य, अन्तःक्रियाएं, परस्पर सम्बन्ध, व्यवस्था के रूप में राज्य, शक्ति -संघर्ष एवं वाहयनीतियों का सम्यक विश्लेषण का लक्ष्य अभीष्ट होता हैं |

                               

* अंतर्राष्ट्रीय राजनीति कि प्रकृति :-

                                                         किसी भी विषय-अनुशासन की प्रकृति से तात्पर्य उसकी अनुसंधान प्रवृत्ति से है। प्रकृति-विश्लेषण से विषय की रुचि के क्षेत्र-सीमा की विमाओं का ज्ञान होता है। विषय की प्रकृति का ज्ञान होते ही, हमें उस विषय-विशेष की आधारभूत विषयवस्तु की जानकारी हो जाती है। विषयवस्तु का स्पष्ट ज्ञान, अध्ययन की गुणवत्ता व उसकी उपादेयता के लिए आवश्यक है। अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के विषयवस्तु को लेकर भी विद्वानों में कम विवाद नहीं है। प्रमुख प्रश्न यही है कि- विषय के अध्ययन का प्रमुख लक्ष्य क्या होना चाहिए ? इस प्रमुख प्रश्न का उत्तर भिन्न-भिन्न लोगों ने विभिन्न प्रकार से किया है। प्रत्येक व्यक्ति की किसी विषय-विशेष से अपनी अपेक्षा हो सकती है।
किन्हीं दो देशों के मध्य कई अन्य संबंधों की अपेक्षा आर्थिक संबंध बहुत ही अहम होते हैं, क्योंकि इसमें दोनों

अर्थव्यवस्थाओं की आवश्यकताएँ संतुष्ट होती हैं। विश्व के सभी देश, अपनी अपनी आर्थिक प्रगति के लिए सभी राष्ट्रों से आर्थिक संबंध अवश्य बनाना चाहते हैं। इन आर्थिक संबंधों की राह में आने वाले अन्य राजनीतिक, कूटनीतिक अथवा अन्य किसी अवरोध को वे न्यूनतम या समय-विशेष के लिए परे रख आगे बढ़ना चाहते हैं। आधुनिक विश्व में निस्संदेह आर्थिक गतिविधियां प्रमुख रूप से प्रभावी है। बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ के उदारवादियों ने इस आर्थिक परिघटना को महसूस करते हुए अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन की प्रमुख विषयवस्तु उन बढ़ती हुई आर्थिक गतिविधियों एवं मैत्रियों को बनाने पर बल दिया जो राष्ट्रों की सीमाओं की मर्यादाओं में सीमित नहीं रह सकती।

बाजार की शक्तिशाली उपस्थिति से प्रभावित हो, वाल्ज़  कहते हैं कि- बाजारों के व्यवहार-अनुक्रमों का अध्ययन संभवतः उन संगत आर्थिक शक्तियों की कार्यप्रणाली को समझाने में सक्षम हो, जिनके प्रभाव में लगभग सभी राज्य लगभग एक ही तरह व्यवहार करने लग जाते हैं। इसप्रकार यह भी अंतर्राष्ट्रीय राजनीति की विषयवस्तु हो सकती है।

मॉर्गेंथों के अनुसार अंतर्राष्ट्रीय राजनीति राष्ट्रों के मध्य शक्ति विषयक संघर्ष तथा उसका उपयुक्त प्रयोग हैं  इन परिभाषाओं का वैचारिक सार अंतर्राष्ट्रीय राजनीति की प्रकृति को राष्ट्र-राज्य का आधार देता हैं | अंतर्राष्ट्रीय राजनीति इस अर्थ में समस्त राष्ट्र-राज्यों के शक्ति -आधारित  क्रियाकलापों का समुच्यय प्रकट होती हैं | 

बीसवीं शताब्दी में सत्तर के दशक के विद्वानों ने राष्ट्रों के मध्य बढ़ रही परस्परिक अन्तःनिर्भरता की ओर ध्यान केन्द्रित किया। प्रत्येक राष्ट्र को अपने विकास के लिए अधिकाधिक संसाधनों एवं पूंजी-लाभ की आवश्यकता उन्हें परस्पर अन्तःनिर्भरता के लिए बाध्य करती है। इस आवश्यकता की पूर्ति के लिए राष्ट्र अपने अन्य मतभेद परे रख आगे बढ्ने की कोशिश करते हैं। इस परिघटना से प्रभावित विद्वान अंतर्राष्ट्रीय राजनीति की विषयवस्तु में राष्ट्रों के मध्य बढ़ रही परस्परिक अन्तःनिर्भरता को महत्वपूर्ण स्थान देना चाहते हैं।
यह एक सुपरिचित तथ्य है कि कुछ देशों की विश्व अर्थव्यवस्था में पकड़ बढ़ती चली जा रही है और कुछ देश महज बड़ी अर्थव्यवस्थाओं पर निर्भर बन कर रह गए हैं। यह एकतरफा होता आर्थिक शक्ति संतुलन अन्य समानान्तर संतुलनों को भी प्रभावित करता है। इसलिए मार्क्सवादी विचारक चाहते हैं कि अंतर्राष्ट्रीय राजनीति की विषयवस्तु यही विश्लेषण हो।
   

* अंतर्राष्ट्रीय राजनीति का क्षेत्र :-

                                                       आज अंतर्राष्ट्रीय राजनीति का क्षेत्र अत्यधिक व्यापक हो गया है |उसकी पहुंच मानव -गतिविधियों के सुदूरतम छोर तक व्याप्त है | अपने इस क्रम में वह मानवता को प्रायः प्रत्येक स्तर पर गहन प्रभावित करता है | आज पारम्परिक वैचारिक श्रेणियों की मदद से अंतर्राष्ट्रीय राजनीति की गत्यात्मकता को सही तौर पर नहीं समझा जा सकता | ऐसा प्रधानतः इस कारण हो सका है क्योंकि राजनीति की अवधारणा में अब बुनियादी परिवर्तन आ गए है  आज राजनीति के मानकीय (Normative) तथा आनुभविक (Empirical) संसाधनों पर कोई ऐसी बड़ी बहस नहीं होती जो पचास के दशक में होती थी | अब सामान्यतः यह माना जाने लगा है कि राजनीति 'चाहिए 'तथा 'है 
 

* स्वतंत्र विषय -अनुशासन के रूप में विकास :-

                                                             अंतर्राष्ट्रीय राजनीति तो अलग अलग कालखंडों में कई देशों से प्राप्त होते हैं, किन्तु संगठित व वैज्ञानिक रूप से अंतर्राष्ट्रीय राजनीति का अध्ययन प्रथम विश्व युद्ध के बाद ही संभव हो सका।दो-दो विश्व युद्धों की महान विभीषिकाओं ने विद्वानों के मानस को आंदोलित कर दिया। स्पष्ट था कि- राज्य की सुरक्षा के लिए अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के प्रति उदासीन नहीं रहा जा सकता। एक सुविकसित राष्ट्र को भी अपनी सततता के लिए अपने अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्धों का ध्यान रखना ही होता है। अब प्रत्येक राज्य के लिए अंतर्राष्ट्रीय राजनीति महत्वपूर्ण हो गई और अब इससे निरपेक्ष नहीं रहा जा सकता था। लगभग  इसी समय दो महान ग्रंथ लिखे गए, जिनसे अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के सुविचारित अध्ययन की औपचारिक शुरुआत मानी जा सकती है। 1939 में ई॰ एच॰ कार ने ‘द ट्वेंटी इयर्स क्राइसिस’ एवं हंस मोर्गेंथाउ ने 1948 में ‘पॉलिटिक्स एमंग नेशन्स’ लिखी। इन दोनों रचनाओं के सारगर्भित विश्लेषण ने अंतर्राष्ट्रीय राजनीति का एक नए अध्ययन-क्षेत्र के रूप सैद्धांतिक रूप से सूत्रपात कर दिया।निश्चित ही, दो-दो महायुद्धों ने उन लोगों का आत्मविश्वास डिगा दिया था जो पारंपरिक राजनय में अटूट विश्वास रखते थे और जो शक्ति के प्रयोग को आवश्यकतानुसार जायज मानते थे, ताकि इससे शक्ति-संतुलन अप्रभावित रहे। किन्तु अब विकसित राष्ट्रों में यह शिद्दत से महसूस किया गया कि- इस विषय का एक स्वतंत्र विषय-अनुशासन के रूप अध्ययन आवश्यक है। अंतर-गतिरोधों को समझना, उनकी सम्मत व्याख्या करना एवं उनसे निपटने की कला का ज्ञान आवश्यक समझा जाने लगा।

* शब्दावली :-

                       विषय -अनुशासन अध्ययन का एक स्वतंत्र विषय 

राष्ट्र-राज्य एक स्वतंत्र संप्रभु राज्य, जिसकी राष्ट्रीय अस्मिता अक्षुण्ण हो

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