* मार्क्स का जीवन :-
कार्ल मार्क्स ( 1881- 1883 ) का जन्म टायर जर्मनी में एक मध्यमवर्गीय समृद परिवार मे हुआ | 1835 मे मार्क्स ने बॉन विश्वविद्यालय के विधि विभाग में अपना नाम दर्ज करवाया l 1836 मे अपने पिता के आग्रह पर मार्क्स ने बर्लिन विश्वविद्यालय में दाखिला लिया |
फ़ायरवार हीगल 1770 - 1831 लगातार आलोचक था जिसने उसके आदर्शवाद पर आक्रमण किया तथा उस पर एक चेतन रूप से अपने सिद्धांतों का प्रयोग लोगों का वास्तविक समस्याओं से ध्यान हटाने के लिए करने का आरोप लगाया | मार्क्स फ़ायरवार द्वारा हिंगल की आलोचना से सहमत था जबकि उसके हिंगल की दवदववाद की विश्लेषण पद्धति को स्वीकार किया |
1844 और 1848 के बीच मार्क्स कोई के बाद एक ही यूरोपीय देशों से बलपूर्वक निकाला गया इसी समय वैज्ञानिक हो जाए उसके परिणाम स्वरूप होने वाली औद्योगिक क्रांति से उत्पन्न राजनीतिक स्थिति लगातार आर्थिक तनावपूर्ण हो रही थी वास्तव में स्थिति उस मोड़ पर पहुंच गई थी कि 1848 तक आते-आते मार्क्स और साम्यवादी लोगों से जुड़े समाजवादी जिसकी स्थापना मार्क्स ने की थी
अंत में 1849 मैं वे इंग्लैंड चला गया जहां वह शेष जीवन पर्यन्त रहा आगे के 34 वर्षों में उसने ब्रिटिश संग्रहालय में अध्ययन किया वे लिखा |
* मार्क्सवाद के मूल सिद्धांत :-
मार्क्सवाद लेनिनवाद का दर्शन एक लगातार विकास मान सिद्धांत है इसके उदय ने एक गुणात्मक छलांग दर्शन में क्रांतिकारी परिवर्तन का प्रतिनिधित्व किया | सर्वहारा वर्ग के विश्व दृष्टिकोण के रूप में मार्क्स व एंगेल्स द्वारा विकसित मार्क्सवादी दर्शन जिसका ऐतिहासिक मिशन नहीं है वर्ग विहीन समाज की स्थापना है तथा जो ने केवल विश्व में की कठोर वैज्ञानिक व्याख्या करने का दावा करता है बल्कि उसके रूपांतरण के सेदातिक के रूप में काम करने का दावा भी करता है
* अंतरराष्ट्रीय संबंधों पर मार्क्स के विचार :-
मार्क्स के अंतरराष्ट्रीय संबंधों पर विचारों का अध्ययन करने में प्रमुख समस्या यह प्रतीत होती है कि उसने इन पर प्रकटत बहुत कम ध्यान दिया फिर भी यह पूर्ण समानता होगी कि इस विषय पर उसके पास कहने को कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं था उसने यह सोचा कि अंतरराष्ट्रीय संबंध एक अवधारणा के रूप में प्रतीत होती है या वर्णित किए जा सकते हैं तथापि अंतरराष्ट्रीय संबंधों के उनके संदर्भ मुख्य थे उसके सिद्धांत के उस हिस्से में ढूंढने जाने चाहिए जिस ऐतिहासिक और भौतिकवादी कहा जाता है फिर भी यह तथ्य अपने आप में यह संकेत नहीं देता है कि उनके बाद के दृष्टिकोण में भी यूरोपीय केंद्र तक जारी रही किंतु उसकी रुचि आश्चर्यजनक रूप से यूरोपीय सीमाओं तथा समय से परे विकसित हो गई |
एक विश्वव्यापी व्यवस्था के रूप में विश्व की एकमात्र उपलब्ध सरचना है जिसके अंदर मार्क्स की कल्पना साकार हो सकती है राज्यों में विभाजन स्थाई है तथा लंबे समय में महत्वपूर्ण है मानव जाति का राष्ट्र और राज्य विभाजन एस चाहिए तथा जिससे समतलीय विभाजन कहा जाता है यह मोह नहीं है बल्कि वर्णों के कोने विभाजन से निकला हुआ सह घटनाक्रम है इसे समझते हुए इसलिए अंतरराष्ट्रीय संबंधों को एक साथ ही पूंजीवादी व्यवस्था के प्रचार में योगदान देते हुए तथा साथ ही व्यवस्था के अंदर अंतर्विरोध ओं को घेरा बनाते हुए देखा जाता है जो अंत में इस के पतन का प्रबंध करेंगे इस प्रकार उन सभी समाजों में साम्यवादी क्रांतियां लाई जाएगी जो उन समाजों में वर्गों राज्यों विषय बाजारों में अंतरराष्ट्रीय संबंधों को नहीं जानेंगे |
अंतरराष्ट्रीय संबंधों की जब तक की वर्ग संघर्ष उनकी प्रक्रियाओं का निर्णायक है दोहरी प्रकृति व विषय वस्तु बनी रहेगी यद्यपि सर्वहारा वर्ग की की तारे बुर्जुआ वर्ग के पास किन्ही साधनों से उस मात्रा में अंतरराष्ट्रीय एकता नहीं है जो राष्ट्रीय सीमाओं के आरपार उन्हें दूसरे से लड़ने से रोक सकें |
* साम्राज्यवाद में हॉब्सन विचार :-
उन्नसवीं शताब्दी का अंत में आने तक आरती प्रतिक्रियाओं पर आधारित राज्यों के बीच राजनीतिक समस्याओं का एकीकृत सिद्वान्त प्रकट नहीं हुआ था जबकि 1 तथा केवल जीवन जीने वाली बहू संख्या के पास आधुनिक उपयोग के समस्त फलों का उपयोग करने के लिए क्रय शक्ति का अभाव होता है पूंजीवादी समाज इस प्रकार आती उत्पादन बनाने में पर्याप्त उपयोगी सोचने दुविधा को झलते है |
* लेनिन का साम्राज्यवाद में संघर्ष का सिद्धांत :-
आधुनिक युग का साम्राज्यवाद का सर्वोत्तम प्रसिद्ध सिद्धांतकार लेनिन था उसमें साधारण तौर पैर पर मोच यूरोपीय साम्राज्य के वास्तविक प्रदेसिक विस्तार की व्याख्या नहीं उसी प्रकार लेनिन प्रथम वैसे युद्ध से जो उस समय स्थान पर था जब लेनिन ने 1816 मैं अपना सिद्धांत प्रकाशित किया उसके लिए यह युद्ध पूंजीपति शक्तियों के मध्य एक साम्राज्यवादी युद्ध था |
`` साम्राज्यवाद पूंजीवाद के विकास की व्यवस्था है जिसमें एकाधिकारवादी वे वित्तीय पूंजी के आधिपत्य ने सीएम को स्थापित कर लिया है जिसमें पूंजी के निर्यात ने अपना घोषित महत्व प्राप्त कर लिया है जिसमें अंतरराष्ट्रीय प्रश्नों में मध्य विषय के विभाजन का श्रीगणेश हो गया है जिसमें विश्व के सब क्षेत्रों का बड़ी पूंजीवादी शक्तियों के मध्य विभाजन पूर्ण हो चुका है |
* अंतरराष्ट्रीय संबंधों के सिद्धांतों पर पूर्वी व पश्चिमी दृष्टिकोण :-
अंतरराष्ट्रीय संबंधों के मार्क्सवादी सिद्धांतकारों और इनके सामाजिक पशिचमी में सिद्धांत कारों के बीच के विवाद से संवाद अभी तक नहीं हो पाया है एक स्थिति आ गई है जो एक तरफ मार्क्सवादी लेनिनवादी सिद्धांत के प्रति पश्चिमी उपेक्षा व अविश्वसनीयता मान्यता का मिश्रण है |
( 1 ) अंतरराष्ट्रीय संबंधों के पश्चिमी सिद्धांत विषयक मार्क्सवादी - लेनिनवादी दृष्टिकोण :-
अंतरराष्ट्रीय संबंधों के सिद्धांत को अभिव्यक्ति संचरण व अन्य प्रचलित सिद्धांतों को एक समनिवत सम्रग मैं लाने का कार्य करना चाहिए वैज्ञानिक की पश्चिमी परिभाषा में यदा-कदा पर्याप्त का विशेष हवाला दिया जाता है मार्क्सवादी लेनिनवादी इस तत्व पर जोर देते हैं जो पृथ्वी में भाषाओं में मान लिया जाता है |
( 2 ) अंतरराष्ट्रीय संबंधों के मार्क्सवादी लेनिनवादी सिद्धांत विषयक पश्चिमी दृष्टिकोण :-
जहाँ सोवियत मार्क्सवादी लेनिनवादी अब अधिकांश पश्चिमी अंतरराष्ट्रीय संबंधों को दार्शनिक आधारों पर खारिज कर देते हैं यह जगत मात्रात्मक अवधारणाओं का जगत है तथा इसकी सामान्य मान्यताएं वैज्ञानिक ज्ञान के जगत की संरचनात्मक अवधारणाओं का विश्लेषण है तथा वे इन धारणाओं के बीच संबंधों को अभिव्यक्त करती है जो कि स्वयं धारणाओं में अंतर्निहित है |
कार्ल मार्क्स ( 1881- 1883 ) का जन्म टायर जर्मनी में एक मध्यमवर्गीय समृद परिवार मे हुआ | 1835 मे मार्क्स ने बॉन विश्वविद्यालय के विधि विभाग में अपना नाम दर्ज करवाया l 1836 मे अपने पिता के आग्रह पर मार्क्स ने बर्लिन विश्वविद्यालय में दाखिला लिया |
फ़ायरवार हीगल 1770 - 1831 लगातार आलोचक था जिसने उसके आदर्शवाद पर आक्रमण किया तथा उस पर एक चेतन रूप से अपने सिद्धांतों का प्रयोग लोगों का वास्तविक समस्याओं से ध्यान हटाने के लिए करने का आरोप लगाया | मार्क्स फ़ायरवार द्वारा हिंगल की आलोचना से सहमत था जबकि उसके हिंगल की दवदववाद की विश्लेषण पद्धति को स्वीकार किया |
1844 और 1848 के बीच मार्क्स कोई के बाद एक ही यूरोपीय देशों से बलपूर्वक निकाला गया इसी समय वैज्ञानिक हो जाए उसके परिणाम स्वरूप होने वाली औद्योगिक क्रांति से उत्पन्न राजनीतिक स्थिति लगातार आर्थिक तनावपूर्ण हो रही थी वास्तव में स्थिति उस मोड़ पर पहुंच गई थी कि 1848 तक आते-आते मार्क्स और साम्यवादी लोगों से जुड़े समाजवादी जिसकी स्थापना मार्क्स ने की थी
अंत में 1849 मैं वे इंग्लैंड चला गया जहां वह शेष जीवन पर्यन्त रहा आगे के 34 वर्षों में उसने ब्रिटिश संग्रहालय में अध्ययन किया वे लिखा |
* मार्क्सवाद के मूल सिद्धांत :-
मार्क्सवाद लेनिनवाद का दर्शन एक लगातार विकास मान सिद्धांत है इसके उदय ने एक गुणात्मक छलांग दर्शन में क्रांतिकारी परिवर्तन का प्रतिनिधित्व किया | सर्वहारा वर्ग के विश्व दृष्टिकोण के रूप में मार्क्स व एंगेल्स द्वारा विकसित मार्क्सवादी दर्शन जिसका ऐतिहासिक मिशन नहीं है वर्ग विहीन समाज की स्थापना है तथा जो ने केवल विश्व में की कठोर वैज्ञानिक व्याख्या करने का दावा करता है बल्कि उसके रूपांतरण के सेदातिक के रूप में काम करने का दावा भी करता है
* अंतरराष्ट्रीय संबंधों पर मार्क्स के विचार :-
मार्क्स के अंतरराष्ट्रीय संबंधों पर विचारों का अध्ययन करने में प्रमुख समस्या यह प्रतीत होती है कि उसने इन पर प्रकटत बहुत कम ध्यान दिया फिर भी यह पूर्ण समानता होगी कि इस विषय पर उसके पास कहने को कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं था उसने यह सोचा कि अंतरराष्ट्रीय संबंध एक अवधारणा के रूप में प्रतीत होती है या वर्णित किए जा सकते हैं तथापि अंतरराष्ट्रीय संबंधों के उनके संदर्भ मुख्य थे उसके सिद्धांत के उस हिस्से में ढूंढने जाने चाहिए जिस ऐतिहासिक और भौतिकवादी कहा जाता है फिर भी यह तथ्य अपने आप में यह संकेत नहीं देता है कि उनके बाद के दृष्टिकोण में भी यूरोपीय केंद्र तक जारी रही किंतु उसकी रुचि आश्चर्यजनक रूप से यूरोपीय सीमाओं तथा समय से परे विकसित हो गई |
एक विश्वव्यापी व्यवस्था के रूप में विश्व की एकमात्र उपलब्ध सरचना है जिसके अंदर मार्क्स की कल्पना साकार हो सकती है राज्यों में विभाजन स्थाई है तथा लंबे समय में महत्वपूर्ण है मानव जाति का राष्ट्र और राज्य विभाजन एस चाहिए तथा जिससे समतलीय विभाजन कहा जाता है यह मोह नहीं है बल्कि वर्णों के कोने विभाजन से निकला हुआ सह घटनाक्रम है इसे समझते हुए इसलिए अंतरराष्ट्रीय संबंधों को एक साथ ही पूंजीवादी व्यवस्था के प्रचार में योगदान देते हुए तथा साथ ही व्यवस्था के अंदर अंतर्विरोध ओं को घेरा बनाते हुए देखा जाता है जो अंत में इस के पतन का प्रबंध करेंगे इस प्रकार उन सभी समाजों में साम्यवादी क्रांतियां लाई जाएगी जो उन समाजों में वर्गों राज्यों विषय बाजारों में अंतरराष्ट्रीय संबंधों को नहीं जानेंगे |
अंतरराष्ट्रीय संबंधों की जब तक की वर्ग संघर्ष उनकी प्रक्रियाओं का निर्णायक है दोहरी प्रकृति व विषय वस्तु बनी रहेगी यद्यपि सर्वहारा वर्ग की की तारे बुर्जुआ वर्ग के पास किन्ही साधनों से उस मात्रा में अंतरराष्ट्रीय एकता नहीं है जो राष्ट्रीय सीमाओं के आरपार उन्हें दूसरे से लड़ने से रोक सकें |
* साम्राज्यवाद में हॉब्सन विचार :-
उन्नसवीं शताब्दी का अंत में आने तक आरती प्रतिक्रियाओं पर आधारित राज्यों के बीच राजनीतिक समस्याओं का एकीकृत सिद्वान्त प्रकट नहीं हुआ था जबकि 1 तथा केवल जीवन जीने वाली बहू संख्या के पास आधुनिक उपयोग के समस्त फलों का उपयोग करने के लिए क्रय शक्ति का अभाव होता है पूंजीवादी समाज इस प्रकार आती उत्पादन बनाने में पर्याप्त उपयोगी सोचने दुविधा को झलते है |
* लेनिन का साम्राज्यवाद में संघर्ष का सिद्धांत :-
आधुनिक युग का साम्राज्यवाद का सर्वोत्तम प्रसिद्ध सिद्धांतकार लेनिन था उसमें साधारण तौर पैर पर मोच यूरोपीय साम्राज्य के वास्तविक प्रदेसिक विस्तार की व्याख्या नहीं उसी प्रकार लेनिन प्रथम वैसे युद्ध से जो उस समय स्थान पर था जब लेनिन ने 1816 मैं अपना सिद्धांत प्रकाशित किया उसके लिए यह युद्ध पूंजीपति शक्तियों के मध्य एक साम्राज्यवादी युद्ध था |
`` साम्राज्यवाद पूंजीवाद के विकास की व्यवस्था है जिसमें एकाधिकारवादी वे वित्तीय पूंजी के आधिपत्य ने सीएम को स्थापित कर लिया है जिसमें पूंजी के निर्यात ने अपना घोषित महत्व प्राप्त कर लिया है जिसमें अंतरराष्ट्रीय प्रश्नों में मध्य विषय के विभाजन का श्रीगणेश हो गया है जिसमें विश्व के सब क्षेत्रों का बड़ी पूंजीवादी शक्तियों के मध्य विभाजन पूर्ण हो चुका है |
* अंतरराष्ट्रीय संबंधों के सिद्धांतों पर पूर्वी व पश्चिमी दृष्टिकोण :-
अंतरराष्ट्रीय संबंधों के मार्क्सवादी सिद्धांतकारों और इनके सामाजिक पशिचमी में सिद्धांत कारों के बीच के विवाद से संवाद अभी तक नहीं हो पाया है एक स्थिति आ गई है जो एक तरफ मार्क्सवादी लेनिनवादी सिद्धांत के प्रति पश्चिमी उपेक्षा व अविश्वसनीयता मान्यता का मिश्रण है |
( 1 ) अंतरराष्ट्रीय संबंधों के पश्चिमी सिद्धांत विषयक मार्क्सवादी - लेनिनवादी दृष्टिकोण :-
अंतरराष्ट्रीय संबंधों के सिद्धांत को अभिव्यक्ति संचरण व अन्य प्रचलित सिद्धांतों को एक समनिवत सम्रग मैं लाने का कार्य करना चाहिए वैज्ञानिक की पश्चिमी परिभाषा में यदा-कदा पर्याप्त का विशेष हवाला दिया जाता है मार्क्सवादी लेनिनवादी इस तत्व पर जोर देते हैं जो पृथ्वी में भाषाओं में मान लिया जाता है |
( 2 ) अंतरराष्ट्रीय संबंधों के मार्क्सवादी लेनिनवादी सिद्धांत विषयक पश्चिमी दृष्टिकोण :-
जहाँ सोवियत मार्क्सवादी लेनिनवादी अब अधिकांश पश्चिमी अंतरराष्ट्रीय संबंधों को दार्शनिक आधारों पर खारिज कर देते हैं यह जगत मात्रात्मक अवधारणाओं का जगत है तथा इसकी सामान्य मान्यताएं वैज्ञानिक ज्ञान के जगत की संरचनात्मक अवधारणाओं का विश्लेषण है तथा वे इन धारणाओं के बीच संबंधों को अभिव्यक्त करती है जो कि स्वयं धारणाओं में अंतर्निहित है |
No comments:
Post a Comment