Wednesday, October 23, 2019

ज्वार भाटा क्या है एवं ज्वार भाटा की उत्पत्ति के सिद्धांत व प्रकार

* ज्वार - भाटा :-
                       सूर्य तथा चन्द्रमा की आकर्षण शक्तियों के कारण सागरीय जल के ऊपर उठने तथा गिरने को ज्वार - भाटा कहते है । ज्वार - भाटा सामुद्रिक जल की गतियों में से एक अति महत्त्वपूर्ण गति है ।

ज्वार भाटा क्या है एवं ज्वार भाटा की उत्पत्ति के सिद्धांत व प्रकार

 समुद्री जल एक तरंग के रूप में उठता है तो उसे ज्वार कहा जाता है । इस क्रिया में समुद्री जल तरंगों के रूप में ऊपर उठकर तट की ओर बढ़ता है किन्तु जब वही समुद्री जल पुनः पीछे हटता है अर्थात् सागर तली की तरफ लौटता है , तो उसे ' भाटा ' कहा जाता है ।

 समुद्र का जल 24 घण्टे में दो बार तट की तरफ बढ़ता है अर्थात् ऊपर उठता है एवं दो बार उतरता है अर्थात् नीचे गिरता है । इस प्रकार प्रत्येक स्थान पर 12 घण्टे 26 मिनट बाद ज्वार तथा 6 घण्टे 13 मिनट बाद भाटा आता है । ज्वार - भाटा की उत्पत्ति का कारण चन्द्रमा , सूर्य तथा पृथ्वी की पारस्परिक गुरुत्वाकर्षण शक्ति है ।

          पृथ्वी का धरातल केन्द्र की अपेक्षा चन्द्रमा से 6400 कि . मी . दूर है जबकि पृथ्वी का व्यास 12 , 800 किमी . नजदीक है । यही कारण है कि पृथ्वी का धरातल केन्द्र से काफी नजदीक पड़ता है । इसी तरह चन्द्रमा का केन्द्र पृथ्वी के केन्द्र से 38 , 400 किमी . की दूरी पर स्थित है , जबकि पृथ्वी की धरातलीय सतह चन्द्रमा की धरातलीय सतह से 3 , 77 , 600 किमी . दूरी है ।

      इस तरह चन्द्रमा को पृथ्वी की धरातलीय सतह वाले भाग के ठीक पीछे चन्द्रमा की घरातलीय सतह 3 , 90 , 400 किमी की दूरी पर होगी , यही कारण है कि चन्द्रमा के समक्ष पड़ने वाले पृथ्वी के समीपवर्ती भाग पर चन्द्रमा की आकर्षण शक्ति का प्रभाव सबसे अधिक पड़ता है एवं इसके ठीक पृष्ठ भाग पर कम प्रभाव पड़ता है ।

यह प्रक्रिया 24 घण्टे में दो बार होती है अर्थात् दो बार ' ज्वार ' एवं दो बार ' भाटा आता है ।

ज्वार भाटा क्या है एवं ज्वार भाटा की उत्पत्ति के सिद्धांत व प्रकार


* ज्वार-भाटा की उत्पत्ति के सिद्धांत :-
                                                  1 . सन्तुलन सिद्धान्त - इस सिद्धांत का प्रतिपादन आइजक न्यूटन ( 1687 ) ने किया । उन्होंने गुरूत्वाकर्षण सिद्धांत पर बल देते हुए बताया कि प्रत्येक वस्तु में आकर्षण बल होता है जिससे सदैव सन्तुलन गुरुत्वाकर्षण बल द्वारा बना रहता है । इस आकर्षण बल के कारण पृथ्वी का जल खिंच जाता है , जिससे ज्वार आते है । क्योंकि चन्द्रमा पृथ्वी के पास स्थित है । इस कारण चन्द्रमा के आकर्षण बल का प्रभाव पृथ्वी की सतह पर सूर्य की अपेक्षा अधिक पड़ता है ।

2. गतिक सिद्धान्त :-
                               इस सिद्धांत का प्रतिपादन लाप्लास ( 1755 ) ने किया ।

3 . प्रगामी तरंग सिद्धान्त -
                                     इस सिद्धांत का प्रतिपादन 1833 में विलियम हावेल ने किया । जिसे सी . बी . एयरी ने नहर सिद्धांत का नाम दिया । इस सिद्धांत के अनुसार ज्वार जो एक लहर के समान होती है , चन्द्रमा से उत्प्रेरित होकर पूर्व से पश्चिम दिशा की ओर भ्रमण करती है तथा जो दक्षिण गोलार्द्ध में स्थल के अभाव के कारण दक्षिण से उत्पन्न होकर उत्तर की ओर खिसकती है । जिसे प्राथमिक तरंग कहते है । जब ये तरंगें शिखर तट पर पहुँचती है तो ज्वार आता है जब तरंग की द्रोणी आती है तो भाटा आता है ।

4 . स्थैतिक तरंग सिद्धान्त -
                                           इसका प्रतिपादन अमेरिकी विद्वान आरए . हैरिस ने किया । इस सिद्धांत के अनुसार पृथ्वी पर ज्वार - भाटा की क्रिया प्रत्येक महासागर में स्वतंत्र रूप से सम्पादित होती है ।


* ज्वार - भाटा के प्रकार :-
                                      ज्वार - भाटा में पाए जाने वाले गुणों , विशेषताओं के आधार पर ज्वार - भाटा को सात प्रकारों में विभक्त किया जा सकता है |

 दीर्घ ज्वार - भाटा - जब सूर्य , पृथ्वी एवं चन्द्रमा एक सीध में सरल रेखा में स्थित होते हैं , तो सूर्य एवं चन्द्रमा की संयुक्त आकर्षण शक्ति द्वारा समुद्र का जल आकर्षित होता है , जिससे ऊंचे - ऊंचे ज्वार उत्पन्न होते है । इस प्रकार की स्थिति पूर्णमासी एवं अमावस्या के दिन आती है ।

लघु ज्वार - माटा - लघु ज्वार तब आते हैं जब पृथ्वी , सूर्य एवं चन्द्रमा स्थिति समकोणीय होती है । प्रत्येक माह में कृष्ण पक्ष एवं शक्ल पक्ष की सप्तमी एवं अष्टमी की तिथियों को सूर्य एवं चन्द्रमा पृथ्वी के साथ समकोणीय स्थिति बनाते हैं । सूर्य भी महासागरीय जल को अनेक दिशाओं से आकर्षित करता है । इस स्थिति में किसी एक क्षेत्र  में अधिक आकर्षण शक्ति न लग पाने के कारण ज्वार की ऊँचाई अन्य तिथियों की अपेक्षा कम रह जाती है । इसे ' लघु ज्वार ' कहा जाता है ।

         इस स्थिति में ज्वार अपनी ऊँचाई से 20 प्रतिशत तक नीचा हो जाता है । इसे ही निम्न ज्वार या लघु ज्वार कहा जाता है । इस प्रकार की स्थिति प्रत्येक माह की कृष्ण पक्ष एवं शुक्ल पक्ष की सप्तमी या अष्टमी को आती है । इस तरह महीने में लघु ज्वार की स्थिति भी दो बार आती है ।


उच्च - भूमि एवं निम्न - भूमि ज्वार - भाटा :-
                                                         पृथ्वी का चक्कर लगाता हुआ चन्द्रमा जब - जब पृथ्वी की निकटतम दूरी पर रहता है तो इसे चन्द्रमा की ' उपभू स्थिति कहा जाता है । इस स्थिति में चन्द्रमा की ज्वार उत्पादक शक्ति औसत रूप से अधिक होती है , जिससे उच्च ज्वार आता है । इस ज्वार की ऊँचाई सामान्य ज्वार की अपेक्षा 15 से 20 प्रतिशत से अधिक होती है । इसके विपरीत जब पृथ्वी का चक्कर लगाता हुआ चन्द्रमा पृथ्वी इग्रवी से अत्यधिक दूरी पर रहता है , तो उसे ' अप - मू ज्वार कहा जाता है । इस स्थिति में चन्द्रमा की ज्वार उत्पादक शक्ति कम हो जाती है इसलिए ज्वार कम ऊँचाई तक ही आ पाते हैं । इसे निम्न भूमि ज्वार कहा जाता है ।

अयनवृतीय एवं भूमध्यरेखीय ज्वार - भाटा :-
                                                            पृथ्वी की तरह चन्द्रमा भी परिभ्रमण की स्थिति में उत्तरायण एवं दक्षिणायण होता रहता है । चन्द्रमा का अधिकतम झुकाव कर्क एवं मकर रेखा पर क्रमशः उत्तरायण एवं दक्षिणायण होता है । फलतः कर्क एवं मकर रेखा पर आने वाले ज्वार को अयनवृतीय ज्वार ' कहा जाता है । चन्द्रमा भूमध्य रेखा पर प्रत्येक महीने लम्बवत् रहता है । फलतः ज्वार की दैनिक असमानता नहीं मिलती , बल्कि दो उच्च ज्वार एवं दो निम्न ज्वार की ऊँचाइयाँ बराबर रहती है । इन्हें ही भूमध्यरेखीय ज्वार कहा जाता है ।


दैनिक ज्वार - भाटा :-
                              एक ही स्थान पर प्रत्येक दिन एक ज्वार एवं एक भाटा आने की स्थिति को दनिक ज्वार - भाटा कहा जाता है । इस प्रत्येक ज्वार - भाटा में 52 मिनट का अन्तर सदैव बना रहता है । ऐसे ज्वार चन्द्रमा की झुकाव गति के कारण आते हैं । दैनिक ज्वार - भाटा को सूर्य , पृथ्वी एवं चन्द्रमा की स्थिति गतियों समयानुसार अत्यधिक प्रभावित करती है ।

2 comments:

  1. Wow it was vary
    informative post
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